संकलन एवम् प्रस्तुति/ मक्सिम आनन्द
मैं एक संन्यासी के पास था। उनसे मेरी बात होती थी। वे संन्यासी मुझसे बार-बार कहते, ‘‘मैंने लाखों रुपयों पर लात मार दी। ” सत्य ही कहते होंगे। और संन्यासी बेचारे के पास और कुछ कहने को तो होता नहीं। धनपति के पास जाइए, वह अपने धन का हिसाब बताता है कि इतने करोड़ थे, इतने करोड हो गये; मकान छ: मंजिला था सात मंजिल हो गया। पंडितों के पास जाइए तो वे अपना बताते हैं कि अभी एम. ए. भी हो गये, पी. एच. डी. भी हो गये, अब डी. लिट भी हो गये; अब यह हो गये, वह हो गये! पांच किताबें छपी थीं, अब पंद्रह छप गयीं! वह अपना बतायेंगे। साधु संन्यासी क्या बतायें? लेकिन वह भी अपना हिसाब रखता है, त्याग का!
चलते वक्त मैंने पूछा- ‘‘महाराज, यह लात मारी कब?” कहने लगे, ‘‘कोई बीस-पच्चीस साल हो गये। ” मैंने कहा कि लात ठीक से लग नहीं पायी, नहीं तो पच्चीस साल तक याद रखने की क्या जरूरत है?_ पच्चीस साल बहुत लंबा वक्त है। अब लात मार ही दी तो खत्म करो बात। पच्चीस साल याद रखने की क्या जरूरत है।
''लेकिन वे अखबार की कटिंग रखे हुए थे अपनी फाइल में, जिसमें छपी थी पच्चीस साल पहले यह खबर। कागज पुराने पड़ गये थे, पीले पड़ गये थे, लेकिन मन को बड़ी राहत देते होंगे। दिखाते-दिखाते गंदे हो गये थे। अक्षर भी समझ में नहीं आते थे। लेकिन उनको बड़ी तृप्ति मिलती होगी। दस-बीस साल पहले उन्होंने लाखों रुपये पर लात मारी। _मैंने उनसे कहा, ‘‘लात ठीक से लग जाती तो रुपये भूल जाते। लात ठीक से लगी नहीं। लात लौटकर वापस आ गयी।
पहले अकड़ रही होगी कि मेरे पास लाखों रुपये हैं। अहंकार रहा होगा। सड़क पर चलते होंगे तो भोजन को कोई जरूरत न रही होगी। बिना भोजन के भी चले जाते होंगे। ताकत गयी नहीं, रही होगी। भीतर ख्याल रहा होगा कि लाखों रुपये मेरे पास हैं। फिर रुपयों को छोड़ दिया, त्याग कर दिया।
जबसे त्याग किया, तबसे अकड़ दूसरी आ गयी : कि मैंने रुपयों को लात मार दी! मैं कोई साधारण आदमी हूं? और पहली अकड़ से दूसरी अकड़ ज्यादा खतरनाक है। पहले अहंकार से दूसरा अहंकार ज्यादा सूक्ष्म है। दबाया हुआ अहंकार वापस लौट आया। अब वह और बारीक होकर आया है कि जिसकी पहचान भी न हो सके।
