आंनद गुणात्मक रूप से सुख-दुख दोनों से भिन्न है…

संकलन एवम् प्रस्तुति/मक्सिम आनन्द

एक रूसी कहानी है। एक दर्जी है, गरीब आदमी। बस उसका एक ही शौक है कि हर महीने एक रुपया वह लाटरी में लगा देता। ऐसा वर्षों से लगा रहा, कोई बीस साल बीत गए। न कभी उसे मिली, न उसे अब कोई खयाल है कि मिलेगी, मगर आदतन हर महीने जब उसको उसकी तनख्वाह मिलती, एक रुपया वह लाटरी में लगा देता। यह एक धार्मिक कृत्य हो गया उसके लिए, कि लगा देना एक। होगा तो होगा, नहीं होगा तो नहीं होगा। जाता भी कुछ नहीं।


एक दिन हैरान हुआ, सांझ को द्वार पर लोग आए, रथ रुका। हंडे भरे हुए रुपए आए। वह तो घबड़ा गया। उसने कहा कि महाराज, यह क्या मामला है? उन्होंने कहा, तुम्हें लाटरी मिल गई। उसे दस लाख रुपए मिल गए। उस रात तो सो नहीं सका। हर रात आराम से सोता था। उस रात तो करवट ले, बहुत सोने की कोशिश की, न सो सका। दस लाख! पगलाने लगा। सुबह तो आकर उसने अपना दुकान-दरवाजा बंद कर दिया, ताला लगाकर उसने चाबी कुएं में फेंक दी कि अब करना ही क्या है? बात खतम हो गए अब मजा करेंगे। उसने खूब मजा किया। मजा करने की जो धारणा है आदमी की वह ही किया। वेश्याओं के घर गया, स्वास्थ्य तक खराब हुआ, शराब पी। कभी बीमारियों से ग्रसित न हुआ था, सब तरह की बीमारियां आने लगीं। जुआ खेला। जो-जो उसको ख्याल में था सुख…।

तुम भी सोचो, अगर तुमको दस लाख मिल जाएं तो तुम क्या करोगे? तत्क्षण तुम्हारे सामने पंक्तिबद्ध विचार खड़े हो जाएंगे। कि फिर ऐसा है, तो फिर ये कर गुजरें। और तुम भी वही करोगे जो दर्जी ने किया। वही…थोड़े हेर-फेर से। जुआ खेलोगे, शराब पिओगे, वेश्यओं के पास जाओगे। और करोगे क्या? और सुख है भी क्या? यही कुछ दो-चार बातें सुख मालूम होती हैं। बढ़िया से बढ़िया कार खरीद ली, बढ़िया से बढ़िया मकान खरीद लिया, बढ़िया से बढ़िया वस्त्र बना लिए। साल भर मैं दस लाख फूंक डाले। और साल भर में अपना स्वास्थ्य भी फूंक डाला और अपनी शांति भी फूंक डाला। साल भर के बाद कुंए में उतरा अपनी चाबी खोजने क्योंकि अब फिर दुकान चलानी पड़ेगी। कभी इतना दुखी नहीं था, जैसा दुखी हो गया। किसी तरह चाबी खोज कर लाया। अपनी दुकान खोली, फिर दरजीगिरी शुरू हुई। अब मन भी न लगे। पहले तो कभी अड़चन न आई थी। सीधा-साधा आदमी था, ज्यादा कोई कमाई भी न थी, उपद्रव भी कोई ज्यादा नहीं हो सकता। सामान्य जिंदगी थी, तब ठीक से चलता था, यह साल भर में जो नहीं हो सकता। सामान्य जिंदगी थी, तब ठीक से चलता था, यह साल भर में जो देखा-यह दुख-स्वप्न! कहोगे तो तुम इसको सुख-स्वप्न लेकिन है यह दुख-स्वप्न। जो साल भी में देखा यह उसकी जिंदगी क्षार-क्षार कर गया। अब मन भी न लगे।

अब तो उसने कसम खा ली कि अब दुबारा लाटरी मिलेगी तो लूंगा ही नहीं। मगर पुरानी आदत और पुराना रस! यही तो आदमी की झंझट है। तुम कसम भी खा लो तो वही किए जाते हो, जो तुम करते रहे हो। वह एक रुपया लगाता रहा हर महीने। और साल बीतते-बीतते जब किसी तरह फिर से व्यवस्थित हुआ जा रहा था। काम-धंधा फिर ठीक चलने लगा था। स्वास्थ्य भी जरा ठीक हुआ था सब। शांति बननी शुरू हो रही थी। फिर एक दिन वह आकर रथ रुक गया द्वार पर। उसने अपनी छाती पीट ली कि मारे गए! आदमी की अड़चन समझो-मारे गए, कहता है कि फिर हे भगवान! फिर! अब जानता भी है कि जो हुआ था उस साल में वह फिर से होगा। मगर इंकार भी नहीं कर सकता है। लाटरी फिर ले ली। फिर द्वार पर ताला लगा दी, फिर कुएं में फेंक दी और अब जानता है कि ज्यादा साल भर से चलने का नहीं है। और फिर उतरना पड़ेगा कुएं में। यही तो हम सब कर रहे हैं! जो रोज-रोज किया है, रोज-रोज दुख पाया है। फिर भी करते हैं। कल भी क्रोध किया था, आज भी करोगे। कल भी लोभ किया था, आज भी करोगे। कल भी कष्ट पाया था, आज भी पाओगे। और छाती पीट रहा है और घबड़ा भी रहा है और लाटरी देनेवाले उससे पूछ रहे हैं अगर तू इतना परेशान हो तो न ले। दान कर दे। उसने कहा, अब यह भी नहीं होता। मगर मारे गए! हे प्रभु, ये तूने दिन क्यों दिखाया? ऐसी आदमी की दशा है। और साल भर में वह मारा गया, साल भर में वह मारा गया। साल भर में बहुत बुरी हालत हो गई उसकी। और जब दुबारा कुएं में उतरा तो फिर निकला नहीं। शरीर ज्यादा खराब हालत में हो गया था। कुएं में गए सो गए!


सोचना इस पर, विचारना इस पर। दुख की तो हम जानते हैं बात दुखद है, लेकिन सुख की कोई बहुत सुखद है? सुख भी बड़ा दुखदायी है। सुख ही अपनी पीड़ा है, कितनी ही मीठी लगे पीड़ा लेकिन सुख भी जहर रखना है अपने में। जहर कितना ही मीठा हो, मिठास तो ऊपर-ऊपर होती है, भीतर तो प्राणों को काट जाता है। परमात्मा का अनुभव न तो सुख का अनुभव है, न दुख का अनुभव। परमात्मा का अनुभव शांति का अनुभव है। उस परम शांति का नाम है आनंद। वह गुणात्मक रूप से सुख-दुख दोनों से भिन्न है। वहां द्वंद्व नहीं है। वहां एक का वास है।


जहां कोई कर्म न काल। और वहां कोई कर्म भी नहीं है, कोई कर्ता भी नहीं है। वहां कोई कर्म नहीं है कोई समय भी नहीं है। कोई मृत्यु भी नहीं है। वहां कोई जीवन और जन्म भी नहीं है। जो-जो हमने यहां जाना है, वहां कुछ भी नहीं है। जो-जो हमने जाना है , वहां कुछ भी नहीं है। जो-जो हमने जाना है, सब शांत हो जाता है। और बिलकुल अनजान का अनुभव होता है इसलिए तो मन अवाक हो जाता है।

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