संकलन एवम् प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द
एक मुसलमान बादशाह हुआ। उसका एक गुलाम था। गुलाम से उसे बड़ा प्रेम था, बड़ा लगाव था। वह बड़ा स्वामिभक्त था। एक दिन दोनों जंगल से गुजरते थे। एक वृक्ष में एक ही फल लगा था। सम्राट ने फल तोड़ा। जैसी उसकी आदत थी, उसने एक कली काटी और गुलाम को दी। गुलाम ने चखी और उसने कहा, मालिक, एक कली और। और गुलाम मांगता ही गया। फिर एक ही कली हाथ में बची। सम्राट ने कहा, इतना स्वादिष्ट है? गुलाम ने झपट्टा मार कर वह एक कली भी छीननी चाही।
सम्राट ने कहा, यह हद हो गई। मैने तुझे पूरा फल दे दिया, और दूसरा फल भी नहीं है। और अगर इतना स्वादिष्ट है, तो कुछ मुझे भी चखने दे। उस गुलाम ने कहा कि नहीं, स्वादिष्ट बहुत है और मुझे मेरे सुख से वंचित न करें, दे दें। लेकिन सम्राट ने चख ली। वह फल बिलकुल जहर था। मीठा होना तो दूर, उसके एक टकड़े को डालना मुश्किल था। सम्राट ने कहा, पागल तू मुस्कुरा रहा है, और इस जहर को तू खा गया? तूने कहा क्यों नहीं?
उस गुलाम ने कहा, जिन हाथों से इतने सुख मिले हों और जिन हाथों से इतने स्वादिष्ट फल चखे हों, एक कड़वे फल की शिकायत?
फलों का हिसाब ही छोड़ दिया, हाथ का हिसाब है। जिस दिन तुम देख पाओगे कि परमात्मा के ही हाथ से दुख भी मिलता है, उस दिन तुम उसे दुख कैसे कहोगे? तुम उसे दुख कह पाते हो अभी, क्योंकि तुम हाथ को नहीं देख रहे हो।
जिस दिन तुम देख पाओगे सुख भी उसका दुख भी उसका, सुख दुख दोनों का रूप खो जाएगा। न सुख सुख जैसा लगेगा, न दुख दुख जैसा लगेगा। और जिस दिन सुख दुख एक हो जाते हैं उसी दिन आनंद की घटना घटती है।
