संकलन एवम् प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द
एक क्रॉस बनाने वाले बढ़ई की दुकान में क्रॉस उठाये एक आदमी आया। उसने आहिस्ता से अपने कंधे से क्रॉस उतारा और कोने में रख दिया। बढ़ई ने जब उससे उसके आने का कारण पूछा तो वह बोला, ‘मैं अपने इस क्रॉस से बहुत थक जाता है, क्योंकि यह बहुत भारी है। मैं इसे बदलना चाहता हूँ। क्या आप मुझे कोई हलका क्रॉस दिखा सकते हैं?
बढ़ई बोला, ‘बड़ी अच्छी बात है, यहां। इतने कॉस पड़े हैं, आप देख लीजिये आपको कौन सा क्रॉस ठीक लगता है।’
वह आदमी एक-एक क्रॉस अपने कंधे पर उठाकर देखने लगा। पहले उसने जो क्रॉस उठाया वह शुरू में तो हलका लगा, लेकिन फिर थोड़ी देर लेकर घूमने के बाद बहुत भारी लगने लगा। फिर उसने कई क्रॉस अपने कंधों पर उठा-उठाकर देखे। अन्त में उसे वह क्रॉस मिल ही गया जो सबसे हलका था। वह बोला, ‘इसे मैं आसानी से उठा सकता हूं। क्या यह मैं ले सकता हूँ?
बढ़ई बोला, ‘जरूर, इसके लिये तो आपको मुझसे पूछने की भी जरूरत नहीं है। यह तो वही क्रॉस है जो आप अपने साथ लाये थे।
लोग अपने दुखों के आदी हो जाते हैं। यदि तुम दुख का कोई बोझ, चिंता और विषाद का कोई क्रॉस ढोते रहे हो, तो तुम उसके आदी हो जाते हो-वह तुम्हारे प्राणों का हिस्सा बन जाता है। कठिनायी यह नहीं है कि इसी क्षण तुम उसे छोड़ नहीं सकते- छोड़ सकते हो। लेकिन तुम छोड़ना नहीं चाहते, क्योंकि तुम्हें उसकी आदत पड़ चुकी है। तुम बातें करते हो, कहते हो कि तुम प्रसन्न होना चाहते हो, लेकिन प्रसन्न होने से तुम्हें भय लगता है। वास्तव में तुम प्रसन्न होना ही नहीं चाहते।
लोग प्रसन्नता की भाषा ही भूल गये हैं। लेकिन तुम उसे वापस पा सकते हो, क्योंकि वह तुम्हारी स्वाभाविक क्षमता है। इसे सीखना नहीं है, बस दुखी होने के तरीकों को अनसीखा करना है जिन्हें तुमने बेहोशी में चुन लिया है।
