(दंतेवाड़ा से हमारे संवाददाता उमा शंकर की ख़ास ग्राउंड रिपोर्ट)
लोक असर समाचार दंतेवाड़ा
प्राकृतिक सौंदर्य,धनी संस्कृति और पौराणिक धरोहरों से समृद्ध बस्तर हमेशा से दुनिया को चकित एवम् आकर्षित करता आया है ।
यहां के देवी देवताओं की अगर बात करें तो इनके तार वैदिक काल से जुड़ा हुआ प्रतीत होता है। जिला मुख्यालय दंतेवाड़ा से लगभग 29 किलो मीटर की दूरी पर स्थित एक छोटा सा आश्रित ग्राम उदेला जो मोलासनार ग्राम पंचायत के अधीनस्थ है । लगभग 40 घरों का यह ग्राम चारो ओर घने वन और पहाड़ियों से घिरा हुआ है और आप यहां के ग्रामीणों के मदद के बिना नहीं पहुंच सकते ।
बीते दिवस आश्रित ग्राम उदेला में मुरिया समाज के हज़ारों वर्ष पुरानी समृद्ध परंपरा एव रीति रिवाजों के अनुसार देवी जात्रा का आयोजन बड़े धूमधाम से संपन्न किया गया । इसमें आस पास के गांव के देवी देवता भी सम्मलित नियमनुसार शामिल हुए। बंजारीन बूढ़ी देवी इनकी देवी है जिनकी पूजा ये हर वर्ष अप्रैल-मई महीने के बीच सर्व सहमति से करते है।


इसमें मुख्य भूमिका पटेल समाज का होता है जो मुख्य पुजारी के दायित्व का वहन करते है और इस पूजन में पेरमा, गायता, धुर्वा, शीरा, गुनिया समाज मुख्य रूप से पटेल समाज का पूजन व्यवस्ता में नित्य सहयोग अपने परिवार और समाज कल्याण हेतु देवी का आह्वान करते हुए करते है ।
लक्ष्मीनाथ राणा जो 84 फली या 84 गांव की पुजारियों के प्रमुख है जिन्हे मांझी पद से भी बस्तर में सम्मानित किया गया है उनका कहना है की सम्पूर्ण बस्तर की आराध्य देवी मईया दंतेश्वरी के फाल्गुन मढ़ई मेले के पश्चात माझी प्रधान के दिशा निर्देश में बैठक होती है जहां पूजन से जुड़े 84 गांव के सभी प्रमुख बैठते है और वही पर अपने अपने गांव के देवी देवता का पूजन कब और कैसे करना है । यह निर्णय लिया जाता है ,जिसका पालन सर्व सहमति से 84 गांव के पुजारी वर्ग अपने अपने गांव में विधिवत् तरीक़े से देवी जात्रा का आयोजन अपने ग्राम वासियों के सहयोग से करते है । दंतेवाड़ा जिले के कुआकुंडा ब्लॉक में लक्षण देई और कोंडराज देव का पूजा होता है तत्पश्चात क्रमश मैलावाडा, उदेला में की जाती है ।
माता का यह पूजन मुख्यत: मंगलवार को ही सम्पन्न की जाती है । पूजन में मूल रूप से देवी को कच्चा चावल और जंगल का बेहद खास फूल जिसे क्षेत्रिय भाषा में मावेल पुंगर , हजारी फूल भी कहा जाता है चढ़ावे के रूप में अर्पित की जाती है ।
अगर कोई परिवार की मानसिक व अभिलाषा देवी का आगे पूर्ण होती है तो वह विशेष परिवार देशी मुर्गा मुर्गी ,बकरा या वराह बलि के रूप में देवी को समर्पित करते है।
पूजन से पूर्व जितने गांव के देवी देवता जात्रा में शामिल होने पहुंचते है उनका स्वागत और दैवीय मिलान ग्राम के पटेल द्वारा विधिवत तरीके से आरती, धूप दीप, सिंदूर से तिलक कर किया जाता है और ध्वज के साथ साथ देवी देवता के कलश, छत्र को अपने यहां विराजित किया जाता है ।
जब सभी आस पास के ग्रामीण देवी देवताओं का आमन्त्रण संपन्न हो जाता है तब मुख्य देवी के अगुवाई में अपने अपने देवी देवताओं के ध्वज, कलश और छत्र के संग देवगुड़ी की और प्रस्थान करते है जहां मुख्य पुजारी, पटेल द्वारा देवी की पूजन की जाती है।
बिना मुहरी बाजा के दैवीय जात्रा की परिकल्पना सम्भव नहीं
इस पूजन के पश्चात मुरीया समाज देवी स्वरूप श्रृंगार आभूषण और वेश भूषा पहनकर खूब मुहरी बाजा के धुन में थिरकते है । कहते है बिना मुहरी बाजा के इस दैवीय जात्रा की परिकल्पना भी नहीं की जाती । इस बाजा के धुन से ही पुजारी समाज से जुड़े वर्गो पर देवी देवताओं का आगमन होता है।
जात्रा का उद्देश्य समाज के कल्याण के लिए
जात्रा नृत्य में मुड़िया समाज अपने हाथों में लोहे की कटीली जंजीर का उपयोग करते हुए अपने शरीर में अघात पहुचाते हुए खूब नाचते है। मुख्य पटेल सोनूराम पदामी का कहते है हमारी यह परंपरा सदियों पुरानी है और हम इसका वहन अपने समाज के कल्याण हेतु चिर निरंतर करते आ रहे है ।
देवगुडी की पूजा समापन होने के पश्चात अलग अलग गांव से आए देवी देवताओं की विदाई विधिवत तरीके से पटेल प्रमुख द्वारा की जाती है । ज्ञात हो कि आश्रित ग्राम उदेला की इस दैवीय जात्रा में गंजेनार, खुटेपाल, श्यामगिरी और नकुलनार ग्राम के देवी देवता सम्मिलित हुए थे ।
