(संकलन एवं प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द )
एक आदमी अकेला था। ऊब गया अकेलेपन से तो उसने प्रभु से प्रार्थना की कि एक सुंदर स्त्री भेज दो। सच में सुंदर हो, साधारण स्त्री नहीं चाहिए। क्लियोपैट्रा हो कि मर्लिन मनरो हो, सच में सुंदर हो। कि सोफिया लॉरेन हो, सच में सुंदर हो। लेकिन प्रभु ने भी खूब मजाक की। प्रभु ने कहा, फांसी का फंदा न भेज दूं? आदमी नाराज हो गया, उसने कहा यह भी कोई बात हुई? हम मांगते हैं सुंदर स्त्री, तुम कहते हो, फांसी का फंदा। ऐसा न शास्त्रों में लिखा, न कभी तुमने ऐसा किसी भक्त को कहा। यह तुम बात क्या कहते हो? मैं तो कहता हूं सिर्फ सुंदर स्त्री भेद दो। फांसी का फंदा क्या करना? कोई मुझे फांसी लगानी !
खैर, सुंदर स्त्री आ गई। लेकिन तीन दिन के भीतर ही उस आदमी को पता चला कि यह तो फांसी का फंदा हो गया। प्रभु ठीक ही कहते थे। मैंमांग तो स्त्री रहा था, लेकिन मांग फांसी का फंदा ही रहा था। समझा नहीं। बात उन्होंने बड़ी सधुक्कड़ी भाषा में कही थी, उलटबांसी कही थी। घबड़ाने लगा। सात दिन में ही परेशान हो गया। सात दिन बात तो याद आने लगे वे दिन, जब अकेला था, कितने सुंदर थे। कितने सुखद थे।
आदमी अदभुत है। जो खो जाता है वह सुंदर मालूम पड़ता है। जो नहीं मिलता वह सुंदर मालूम पड़ता है। जो मिल जाता है वह तो कांटे की तरह गड़ता है।
आखिर उसने प्रभु से कहा क्षमा करें, भूल हो गई। अज्ञानी हूं, माफ कर दें। एक तलवार भेज दें। सोचा मन में, इस स्त्री का खातमा कर दूं तो फिर पुराने दिनों की शांति, वही एकांत, वही मौज, वही मस्ती। फिर निश्चित होकर रहेंगे।
लेकिन फिर प्रभु ने कहा, तलवार? अरे तो फांसी का फंदा ही न भेज दूं? वह आदमी फिर नाराज हो गया। उसने कहा, यह एक भेज दिया फांसी का फंदा, अभी भी तुम्हारा मन नहीं भरा ? मैं कहता हूं सिर्फ एक अच्छी तलवार भेज दो धारवाली।
खैर नहीं माना, तलवार आ गई। उसने पत्नी को मार डाला। सोचता था वह तो, पत्नी को मारकर आनंद से रहेगा लेकिन पकड़ा गया। फांसी की सजा हुई। जब फांसी के तख्ते पर उसे ले जाने लगे तब वह हंसने लगा खिलखिलाकर।
जल्लादों ने पूछा, बात क्या है? दिमाग खराब हो गया? फांसी के तख्ते पर कोई हंसता ?
उसने कहा, अरे हंस रहा हूं इसलिए कि यह भी खूब मजा रहा। परमात्मा तो पहले ही से कह रहा था बार-बार : फांसी का फंदा भेज दूं? फांसी का फंदा भेज दूं? मैंने समझा नहीं। मान लेता पहले ही तो इतनी झंझटों से तो बच जाता। जो मिल जाए वही फांसी का फंदा हो जाता है।
आस्कर वाइल्ड ने कहा है, धन्यभागी हैं वे जिन्हें उनकी चाहत की स्त्री नहीं मिलती। मिल गई कि मुश्किल हो गई। मजनू अभी भी चिल्ला रहे हैं, ‘लैला, लैला।’ चिल्लाते रहेंगे। और बड़ी मस्ती में हैं। मिल जाती तो पता चलता। जिनको लैला मिल गई उनसे पूछो।
जो तुम्हें मिल जाता है वहीं से रस खो जाता है। धनी से पूछो, धन में रस है? गरीब को है रस यह बात सच है। गरीब को एक ही रस है : धन। नहीं मिला; दूर है। अमीर से पूछो जिसको मिल गया है। वह बड़ा हैरान होता है कि लोग इतने पागल क्यों हैं? आखिर बुद्ध और महावीर अपने राजमहल छोड़कर चले क्यों गए? रस नहीं था, नहीं मिला।
जो पद पर नहीं है, उसे बड़ा रस होता है कि तरह पद पर हो जाऊं। जो पद पर हैं – उनसे पूछो, फांसी लग गई है। लौट भी नहीं सकते। किस मुंह से लौटें? बड़ी जद्दोजहद करके तो चढ़े, अब उतरने में भी दिक्कत मालूम होती है कि लोग कहेंगे, अरे! इतनी मेहनत से गए थे, अब क्या मामला है? यह भी स्वीकार करने का मन नहीं होता कि हम मूढ़ थे, अज्ञानी थे, इसलिए पद की आकांक्षा की।