महल में कितनी जगह होती है, मगर सदा कम होती है…

(संकलन एवं प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द )

मैंने सुना है, एक फकीर हुआ। वह रात सोने जा ही रहा था कि किसी ने द्वार पर दस्तक दी। बड़ी छोटी झोपड़ी थी; पति और पत्नी सो सकते थे, बस इतनी ही जगह थी। पति ने पत्नी से कहा : द्वार खोल। बाहर तूफान है। शायद कोई भटका हुआ यात्री है।

पर पत्नी ने कहा : जगह कहां है?

उसने कहा कि दो के सोने के लायक काफी है, तीन के बैठने के लिए काफी है। यह कोई महल नहीं है कि यहां जगह कम हो जाए। यह तो गरीब का घर है; यहां जगह की क्या कमी है?

दरवाजा खोल दिया गया; मेहमान भीतर आ गया। वे तीनों बैठ गए। थोड़ी ही देर बीती होगी कि फिर किसी ने द्वार पर दस्तक दी।

फकीर ने कहा मेहमान से, जो कि द्वार के पास बैठा था कि द्वार खोल। तो मेहमान ने कहा: जगह कहां है?

फकीर ने कहा : यह कोई महल नहीं है, पागल ! तीन के बैठने के लिए काफी है; चार के खड़े होने के लिए काफी है। गरीब का घर है, यहां बहुत जगह है। हम जगह बना लेंगे।

उस फकीर ने बड़ी अनूठी बात कही कि यह कोई महल नहीं है कि जगह कम पड़ जाए। महल में कितनी जगह होती है, मगर सदा कम होती है।

वासना जहां है, असंतोष जहां है, अतृप्ति जहां है, वहां सभी छोटे हो जाते हैं। जहां तृप्ति है, वहां सभी बड़ा हो जाता है। छोटा सा घर महल हो सकता है- तृप्ति से यदि जुड़ जाए।

बड़े से बड़ा महल झोपड़े जैसा हो जाता है; अतृप्ति से यदि जुड़ जाए। तो तुम क्या करोगे? महल चाहोगे कि छोटे से घर को तृप्ति से जोड़ लेना चाहोगे?

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