(संकलन एवं प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द)
रमण महर्षि के जीवन में एक घटना घटी। वही घटना क्रांति की घटना हो गयी। उससे ही उनके भीतर महर्षि का जन्म हुआ। अठारह, सत्रह-अठारह साल के थे, घर छोड़कर भाग गाए थे सत्य की खोज में, कई दिन के भूखे थे, प्यासे थे, एक मंदिर में जाकर ठहरे थे। पैरों में फफोले पड़ गए थे चलते-चलते। कई दिन की भूख, कई दिन की प्यास, थकान, उस मंदिर में पड़े पड़े रात ऐसा लगा कि मौत आ रही है। लेट गए-आ रही तो आ रही। सत्य का खोजी क्या करे? जो आ रहा, उसे देखें। जो आ रहा, उसे पहचाने। जो आ रहा, उसमें आंखें गड़ाए, उसका दर्शन करे। लेट गए। न भागे, न चिल्लाए, न चीखा, न पुकारा। मरने लगे। जब मौत आ रही है तो आ रही है। जो परमात्मा भेज रहा है, वही उसका प्रसाद है, वह उसकी भेंट है। जैसे जीवन उसने दिया, वैसे ही मौत दे रहा है, अंगीकार कर लिया…।
इसको बुद्ध ने तथाताभाव कहा है। जो हो, उसे वैसा ही स्वीकार कर लेना। उसमे ना-नुच न करना। ऐसा हो, वैसा हो, ऐसी अपनी आकांक्षा न डालना। जैसा हो, वैसा का वैसा।
कबीर ने कहा है-जस का तस , जैसा का तैसा, वैसा ही स्वीकार कर लेना। क्योंकि जब तक तुम अस्वीकार करते हो, तब तक तुम जीवन से लड़ रहे हो, तब तक तुम परमात्मा से संघर्ष कर रहे हो। तब तक किसी न किसी भांति तुम अपनी आकांक्षा आरोपित करना चाहते हो। तब तक तुम सत्य के खोजी नहीं हो। तब तक तुम्हारा अहंकार प्रगाढ़ है। जो है, जैसा है, उसे वैसा ही स्वीकार कर लेने में अहंकार समाप्त हो जाता है। अहंकार के खड़े होने की जगह नहीं रह जाती। संघर्ष गया, अहंकार गया।
रमण लेट गए। राजी हो गए, मौत आती है तो मौत आती है। अपने बस क्या है। जिहि विधि राखे राम तिहि विधि रहिए। अब मौत आ गयी तो मौत आ गयी। अब इसी विधि राम ले जाना चाहते है तो ठीक, यह उनकी मजीं। वे चलने को तैयार हो गए। इसको लाओत्सू ने कहा है- नदी की धार में बहना, नदी की धार के खिलाफ लड़ना नहीं।
अहंकार धारे के खिलाफ लड़ता है। अहंकार कहता है, ऊपर की तरफ जाऊंगा। गंगोत्री की तरफ यात्रा करता है अहंकार। गंगा जा रही है गंगासागर, अहंकार जाता है गंगोत्री की तरफ, इसलिए संघर्ष हो जाता है, इसलिए गंगा से टक्कर हो जाती है। यह जो विराट गंगा है अस्तित्व की, इसके साथ, धारे के साथ बहने का नाम ही समर्पण है। देखने लगे क्या हो रहा है, पैर सुस्त हो बहने लगे धारे के साथ, गए, शून्य हो गए, मर गए, हाथ सुस्त हो गए, शून्य हो गए, मर गए। और रमण जागे हुए भीतर देख रहे है- और तो कुछ करने को नहीं है-एक दीया जल रहा है ध्यान का, देख रहे है कि यह हो रहा है, यह हो रहा है, यह हो रहा है, सारा शरीर शववत हो गया। देख रहे हैं।
एक क्षण को तो ऐसा लगा कि श्वास भी गयी। देख रहे हैं। और उसी क्षण क्रांति घटी। शरीर मृत हो गया, मन के विचार धीरे-धीरे शांत हो गए। क्योंकि सब विचार संघर्ष के विचार हैं, जब तक तुम ऊपर की तरफ तैरना चाह रहे हो तब तक विचार हैं; जितना ऊपर की तरफ तैरना चाहोगे उतने ही विचार चिंतापूर्ण हो जाते हैं। जब बहने ही लगे धार के साथ, कैसा विचार ! कैसी चिंता। चिंता भी छूट गयी। शरीर मृत की तरह पड़ा रह गया, श्वास रुक गयी, ठहर गयी, शांत हो गयी। एक क्षण जैसे मृत्यु घट गयी। और उसी क्षण जीवन भी घट गया, क्योंकि मृत्यु का सत्य जीवन है। जैसे सब जीवन मृत्यु में ले जाता है, वैसे सब मृत्यु और बड़े जीवन में ले जाती है, बस तुम जागे होओ, तो काम हो जाए।
रमण जागे थे, देखते रहे, चकित हो गए-शरीर तो मर गया, मै नहीं मरा; मन तो मर गया, मैं नहीं मरा; सब तो मर गया, मैं तो है, चैतन्य तो है, चैतन्य तो और भी प्रगाढ़ रूप से है जैसा कभी न था। ऊपर-ऊपर का जाला कट गया, ऊपर-ऊपर की व्यर्थ की धूल हट गयी, भीतर की मणि और भी चमकने लगी, और भी ज्योतिर्मय हो गयी। मिट्टी मरती है, मृण्मय मरता है, चिन्मय की कैसी मौत। देह जाती और आती, तुम न आते, न जाते। एस धम्मो सनंतनो। तुम तो शाश्वत हो। तुम परमात्म-स्वरूप हो।
उस घड़ी रमण को दिखायी पड़ा कि उपनिषद ठीक कहते हैं-अहं ब्रह्मास्मि। तब तक सुनी थी बात, पढ़ी भी थी, पर अनुभव में न आयी थी, उस दिन अनुभव में आ गयी, उस दिन साक्षात्कार हुआ। उठकर बैठ गए। उसी दिन क्रांति घट गयी। फिर और कुछ नहीं किया। बात हो गयी, मुलाकात हो गयी, मिलन हो गया, अमृत का अनुभव हो गया।
फिर जब वर्षों बाद, कई वर्षों बाद दुबारा मौत आयी – रमण को कैंसर हुआ और मित्र बहुत चिंतित होने लगे, भक्त बहुत चिंतित होने लगे तो रमण बार-बार आंख खोलते और वह कहते, तुम नाहक परेशान हो रहे हो, जिसके लिए तुम परेशान हो रहे हो, वह तो कई साल पहले मर चुका। और जिसके लिए तुम सोचते हो, आदर करते हो, श्रद्धा करते हो, उसकी कोई मृत्यु नहीं, तुम नाहक परेशान हो रहे हो। जो मर सकता था, मर चुका बहुत दिन पहले, उसके मरने पर ही तो मेरा जन्म हुआ; और अब जो मैं हूं, इसकी कोई मृत्यु नहीं।