(संकलन एवं प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द)
परसों रात एक इटालियन संन्यासिनी वापस लौटती थी नेपल्स। उसे मैंने नाम दिया है, कृष्ण-राधा। उसने कभी पूछा न था अब तक कि अर्थ क्या है। जाते समय मैंने उससे पूछा, कुछ पूछना है? उसने कहा कि और कुछ नहीं पूछना है; बड़ी तृप्त, शांत होकर जाती हूं। एक बात भर पूछनी है जो पहले दिन मैं पूछने से चूक गई, कृष्ण-राधा का अर्थ क्या है? आपने मुझे राधा क्यों पुकारा है? तो उसे मैंने जो कहा है, वह मैं तुमसे भी कहना चाहूंगा, क्योंकि इन सूत्रों से उसका बड़ा गहरा संबंध है।
उसे मैंने कहा कि पुराने शास्त्रों में राधा का कोई उल्लेख नहीं है। गोपियां हैं, सखियां हैं, सोलह हजार हैं। कृष्ण उनके साथ नाचते हैं; उनकी बांसुरी बजती है। और सारा वन-प्रांत आनंद से गूंज उठता है; रास की लीला चलती है। लेकिन राधा का कोई नाम पुराने शास्त्रों में नहीं है। सिर्फ इतना ही कहीं-कहीं उल्लेख है कि और सारी सखियों में, और सारी गोपियों में एक गोपी है, जो कृष्ण के बहुत निकट है, जो उनकी छाया की तरह है। लेकिन उसका कोई नाम नहीं है।
यह भी उचित ही है; क्योंकि कृष्ण के करीब नाम रहेगा, तो करीब ही न, आ सकोगे। इसलिए पुराने शास्त्रों ने उसे कोई नाम नहीं दिया। छाया की तरह है, कृष्ण के निकट है।
अपनी तरफ से कृष्ण के निकट है, तो स्वभावतः कृष्ण की तरफ से भी निकटता है। क्योंकि भक्त जितना निकट भगवान के आ जाए, उतना ही निकट भगवान भक्त के आ जाता है। वह भक्त पर ही निर्भर है कि तुम कितने निकट भगवान को चाहते हो, उतने निकट तुम पहुंच जाओ। जो तुम भगवान से चाहते हो तुम्हारे प्रति, वही तुम भगवान के प्रति करो, यही तो सूत्र है।
तो शास्त्र कहते हैं कि निकट है, बहुत निकट है, छाया की तरह है। लेकिन किसी नाम का उल्लेख नहीं है। अच्छा किया। क्योंकि नाम-रूप खो जाए, तभी तो कोई कृष्ण के निकट आता है। इसलिए नाम क्या देना! लेकिन फिर हजारों साल तक नाम नहीं दिया गया।
कुछ सात सौ वर्ष पहले अचानक राधा का नाम प्रकट हुआ। गीत गाए जाने लगे; महाकवियों ने परम रचनाएं रचीं; जयदेव ने गीत गोविंद गाया; राधा का आविर्भाव हुआ। राधा शब्द बहुमूल्य होने लगा। इतना बहुमूल्य हो गया कि अगर तुम अकेला अब कृष्ण कहो, तो आधा मालूम पड़ता है। राधा-कृष्ण ही पूरा मालूम पड़ता है। और न केवल महत्वपूर्ण हो गया, कृष्ण को पीछे हटा दिया; राधा आगे आ गई । कोई नहीं कहता, कृष्ण-राधा। लोग कहते हैं, राधा-कृष्ण। यह भी बड़ा महत्वपूर्ण है। जब भक्त इतने निकट आ जाता है कि परमात्मा में एक हो जाता है, तो पहले तो भक्त परमात्मा की छाया होता है; फिर परमात्मा भक्त की छाया हो जाता है। राधा आगे आ गई।
नाम कैसे खोज लिया यह जब नाम शास्त्रों में था ही नहीं? नाम की खोज अलग है। नाम की खोज के पीछे बड़ा गणित है, सांख्य का गणित है। राधा शब्द बनता है धारा शब्द को उलटा देने से।
योगियों की खोज है कि धारा का अर्थ होता है, बहिर्गमन। जैसे गंगोत्री से गंगा की धारा निकलती है, तो स्रोत से दूर जाती है। स्रोत से दूर जाने वाली अवस्था का नाम है, धारा। और राधा धारा का उलटा शब्द है। उसका अर्थ है, जो स्रोत की तरफ वापस आती है। जब एक से तीन बनते हैं, तीन से नौ बनते हैं, नौ से इक्यासी बनते हैं, तो धारा। जब इक्यासी से नौ बनते हैं, नौ से तीन बनते हैं, तीन से एक बनता है, तो राधा। राधा योगियों और सांख्य अनुभोक्ताओं के अनुभव से निकला हुआ शब्द है। उन्होंने जाना कि जीवन की धारा बहिर्गामी है, बाहर जाती है, दूर जाती है, मूल से दूर जाती है, उत्स से दूर जाती है, उत्स की तरफ पीठ होती है, आंखें अनंत क्षितिज पर लगी होती हैं- यह धारा की अवस्था है। जब कोई लौटता है मूल उत्स की तरफ, स्रोत की तरफ, जब गंगा वापस लौटने लगती है गंगोत्री की तरफ, उलटी यात्रा शुरू होती है, अप-स्ट्रीम। अब धारा बाहर की तरफ नहीं जाती है, भीतर की तरफ आती है। बहिर्मुखता बंद होती है; अंतर्मुखता शुरू होती है; तभी तो कृष्ण के पास आती है राधा। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, गंगोत्री में गिर जाती है गंगा। गंगा विलीन हो जाती है; एक रह जाता है।
उस छाया की तरह घूमने वाली सखी को हजारों साल तक नाम न मिला। कोई सात सौ वर्ष पहले अचानक नाम का आविर्भाव हुआ। और जिन्होंने नाम दिया, बड़े अदभुत लोग रहे होंगे। जिन्होंने नाम नहीं दिया, वे भी बड़े अदभुत लोग थे। और जिन्होंने नाम दिया, वे कुछ कम अदभुत लोग न थे। क्योंकि नाम उन्होंने ऐसा गहरा दिया कि उसमें सारे शास्त्र को समा दिया।
