(संकलन एवं प्रस्तुति मक्सिम आनंद)
गुलाल शिष्य थे बुल्लाशाह के। यह और उनके लाखों शिष्य तो कोई बात खास नहीं; बुल्लाशाह के बहुत शिष्य थे। और हजारों सद्गुरु हुए हैं हुए हैं, इसमें कुछ अभूतपूर्व नहीं।
अभूतपूर्व ऐसा है कि गुलाल एक छोटे-मोटे जमींदार थे और उनका एक चरवाहा था- बुलाकीराम। लेकिन बुलाकीराम बड़ा मस्त आदमी था, उसकी चाल ही कुछ और थी ! उसकी आंखों में खुमार था। उसके उठने-बैठने में एक मस्ती थी। कहीं रखता था पैर, कहीं पड़ते थे। और सदा मगन रहता था। कुछ था नहीं उसके पास मगन होने को – चरवाहा था, बस दो जून रोटी मिल जाती थी, उतना ही काफी था। सुबह से निकल जाता खेत में काम करने, जो भी काम हो, रात थका-मांदा लौटता; लेकिन कभी किसी ने उसे अपने आनंद को खोते नहीं देखा। एक आनंद की आभा उसे घेरे रहती थी।
उसके बाबत खबरें आती थीं- गुलाल के पास, मालिक के पास – कि यह चरवाहा कुछ ज्यादा काम करता नहीं, क्योंकि हमने इसे खेत में नाचते देखा, काम यह क्या खाक करेगा। तुम भेजते हो गाएं चराने, गाएं एक तरफ चरती रहती हैं, यह झाड़ पर बैठकर बांसुरी बजाता है। हां, बांसुरी गजब की बजाता है, यह सच है, मगर बांसुरी बजाने से और गाय चराने से क्या लेना-देना है? तुम तो भेजते हो कि खेत पर यह काम करे और हमने इसे खेत में काम करते तो कभी नहीं देखा, झाड़ के नीचे आंख बंद करके बैठे जरूर देखा है। यह भी सच है कि जब यह झाड़ के नीचे आंख बंद करके बैठता है तो इसके पास से गुजर जाने में भी सुख की लहर छू जाती है; मगर उससे खेत पर काम करने का क्या संबंध है।
बहुत शिकायतें आने लगीं। और गुलाल मालिक थे। मालिक का दंभ और अहंकार। तो कभी उन्होंने बुलाकीराम को गौर से तो देखा नहीं। फुर्सत भी न थी; और भी नौकर होंगे, और भी चाकर होंगे। और नौकर-चाकरों को कोई गौर से देखता है। नौकर-चाकरों को कोई आदमी भी मानता है।
तुम अपने कमरे में बैठे हो, अखबार पढ़ रहे हो, नौकर आकर गुजर जाता है, तुम ध्यान भी देते हो? नौकर से तुमने कभी नमस्कार भी की है? नौकर की गिनती तुम आदमी में थोड़े ही करते हो। नौकर से कभी तुमने कहा है आओ बैठो, कि दो क्षण बात करें? यह तो तुम्हारे अहंकार के बिल्कुल विपरीत होगा।
खबरें आती थीं, मगर गुलाल ने कभी ध्यान दिया नहीं था। उस दिन खबर आयी सुबह-ही-सुबह कि तुमने भेजा है नौकर को कि खेत में बुआई शुरू करे, समय बीता जाता है बुआई का, मगर बैल हल को लिए एक तरफ खड़े हैं और बुलाकीराम झाड़ के नीचे आंख बंद किए डोल रहा है।
एक सीमा होती है। मालिक सुनते-सुनते थक गया था। कहा मैं आज जाता हूं और देखता हूं। जाकर देखा तो बात सच थी। बैल हल को लिए खड़े थे एक किनारे- कोई हांकने वाला ही नहीं था- और बुलाकीराम वृक्ष के नीचे आंख बंद किए डोल रहे थे।
मालिक को क्रोध आया। देखा – यह हरामखोर, काहिल, आलसी. .! लोग ठीक कहते हैं। उसके पीछे पहुंचे और जाकर जोर से एक लात उसे मार दी।
बुलाकीराम लात खाकर गिर पड़ा। आंखें खोलीं। प्रेम के और आनंद के अश्रु वह रहे थे।
बोला अपने मालिक से मेरे मालिक ! किन शब्दों में धन्यवाद दूं? कैसे आभार करूं? क्योंकि जब आपने लात मारी तब मैं ध्यान कर रहा था। जरा-सी बाधा रह गयी थी मेरे ध्यान में। आपकी लात ने वह बाधा मिटा दी। जरा-सी बाधा, जिससे मैं नहीं छूट पा रहा था। जब भी ध्यान में मैं मस्त हो जाता हूं तो यही बाधा मुझे घेर लेती है, यही मेरी आखिरी अड़बन थी। गजब कर दिया मालिक आपने भी। मेरी बाधा यह है कि जब भी मैं मस्त हो जाता है ध्यान में, साधु-संतों को भोजन करवाने के लिए निमंत्रण करना चाहता हूं, लेकिन है ही नहीं भोजन जो करवाऊ तो गरीब मन में जब मस्त होता हूं तो मानसी-भंडारा करता हूं। मन ही मन में सारे साधु-संतों को बुला लाता हूं कि आ जाओ, सब आ जाओ, दूर-दूर देश से आ जाओ। और पंक्तियों पर पंक्तियां साधुओं की बैठी थीं और क्या-क्या भोजन बनाए थे, मालिक! परोस रहा था और मस्त हो रहा था। इतने साधु-संत आए थे! एक से एक महिमा वाले ! और तभी आपने मार दी लात। बस दही परोसने को रह गया था; आपकी लात लगी, हाथ से हांडी छूट गयी; हांडी फूट गयी, दही बिखर गया। मगर गजब कर दिया मालिक, मैंने कभी सोचा भी न था कि आपको ऐसी कला आती है। हांडी क्या फूटी, मानसी-भंडारा विलुप्त हो गया, साधु-संत नदारद हो गए – कल्पना ही थी सब, कल्पना का ही जाल था- और अचानक मैं उस जाल से जग गया, बस साक्षी मात्र रह गया।
आंख से आंसू बह रहे हैं आनंद के और प्रेम के, शरीर रोमांचित है हर्षोन्माद से – एक प्रकाश झर रहा है। बुलाकीराम की यह दशा पहली बार गुलाल ने देखी। बुलाकीराम ही नहीं जागा साक्षी में, अपनी आंधी में गुलाल को भी उड़ा ले गया। आंख से जैसे एक पर्दा उठ गया। पहली दफा देखा कि यह कोई चरवाहा नहीं; मैं कहां-कहां, किन-किन दरवाजों पर सद्गुरुओं को खोजता फिरा और सद्गुरु मेरे घर मौजूद था! मेरी गायों को चरा रहा था, मेरे खेतों को सम्हाल रहा था! गिर पड़े पैरों में।
बुलाकीराम, बुलाकीराम न रहे- बुल्लाशाह हो गए। पहली दफा गुलाल ने उन्हें संबोधित किया : ‘बुल्ला साहिब!’ ‘मेरे मालिक, मेरे प्रभु!’ साहब का अर्थ प्रभु। कहां थे नौकर, कहां हो गए शाह! शाहों के शाह!
कहते हैं बहुत फकीर हुए हैं, लेकिन बुल्लाशाह का कोई मुकाबला नहीं। और यह घटना बड़ी अनूठी है। अनूठी इसलिए है कि युगपत घटी। सद्गुरु और शिष्य का जन्म एक साथ हुआ।
सद्गुरु का जन्म भी उसी वक्त हुआ, उसी सुबह; क्योंकि वह जो आखिरी अड़चन थी, वह मिटी। इसलिए भी अद्भुत है कि वह आखिरी अड़चन शिष्य के द्वारा मिटी। हालांकि गुलाल ने कुछ जानकर नहीं मिटायी थी, आकस्मिक था, मगर निमित्त तो बने ! शिष्य ने सद्गुरु की आखिरी अड़चन मिटायी। इधर गुरु का जन्म हुआ, इधर गुरु का आविर्भाव हुआ, उधर शिष्य के जीवन में क्रांति हो गयी।
बुल्लाशाह को कंधे पर लेकर लौटे गुलाल। वह जो लात मारी थी न, जीवन भर पश्चात्ताप किया, जीवन भर पैर दबाते रहे।
बुल्लाशाह कहते : मेरे पैर दुखते नहीं, क्यों दबाते हो? वे कहते : वह जो लात मारी थी…! तीस-चालीस साल बुल्लाशाह जिंदा रहे, गुलाल पैर दबाते रहे। एक क्षण को साथ नहीं छोड़ा। आखिरी क्षण में भी बुल्लाशाह के मरते वक्त गुलाल पैर दबा रहे थे।
बुल्लाशाह ने कहा: अब तो बंद कर रे, पागल ! पर गुलाल ने कहा कि कैसे बंद करूं? वह जो लात मारी थी!
गुरु को लात मारी! बुल्लाशाह लाख समझाते कि तेरी लात से ही तो मैं जागा, मैं अनुगृहीत हूं, तू नाहक पश्चात्ताप मत कर।
लेकिन गुलाल कहते वह आपकी तरफ होगी बात। मेरी तरफ तो पश्चात्ताप जारी रहेगा।
लेकिन एक साथ ऐसी घटना पहले कभी नहीं घटी थी कि सद्गुरु हुआ और शिष्य जन्मा- एक साथ, युगपत ! एक क्षण में यह घटना घटी। यह आग दोनों तरफ एक साथ लगी और दोनों को जोड़ गयी।
