उद्दालक ने अपने बेटे श्वेतकेतु को कहा – कि, हमारे कुल में हम जन्म से ही ब्राह्मण नहीं होते; हमारे कुल में हम…

(संकलन एवं प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द)

उद्दालक ने अपने बेटे श्वेतकेतु को कहा है…। जब श्वेतकेतु वापिस लौटा गुरु के घर से सब जान कर – मेरे जानने के अर्थ में नहीं; जानने का जैसा अर्थ शब्दकोश में लिखा है वैसे अर्थ में- सब जान कर, पारंगत हो कर, वेद को कंठस्थ करके जब लौटा तो स्वभावतः उसे अकड़ आ गई। बाप इतना पढ़ा-लिखा न था।

जब बेटे विश्वविद्यालय से लौटते हैं तो उनको पहली दफा दया आती है बाप पर कि बेचारा, कुछ भी नहीं जानता! ऐसा ही उद्दालक को देख कर श्वेतकेतु को हुआ होगा।

श्वेतकेतु सारे पुरस्कार जीतकर लौट रहा है गुरुकुल से। उसको ऐसी भीतर अकड़ आ गई कि उसने अपने बाप के पैर भी न छुए। उसने कहा : ‘मैं और पैर छुऊं इस बूढ़े अज्ञानी के जो कुछ भी नहीं जानता !’
बाप ने यह देखा तो उसके आंखों में आंसू आ गये। नहीं कि बेटे ने पैर नहीं छुए, बल्कि यह देख कर कि यह तो कुछ भी जान कर न लौटा। इतना अहंकारी हो कर जो लौटा, वह जान कर कैसे लौटा होगा !

तो जो पहली बात उद्दालक ने श्वेतकेतु को कही कि सुन, तू वह जान लिया है या नहीं जिसे जानने से सब जान लिया जाता है?

श्वेतकेतु ने कहाः ‘यह क्या है? किसकी बात कर रहे हो? मेरे गुरु जो सिखा सकते थे, मैं सब सीख आया हूं। मेरे गुरु जो जानते थे, मैं सब जान आया हूं। इसकी तो कभी चर्चा ही नहीं उठी, उस एक को जानने की तो कभी बात ही नहीं उठी, जिसको जानने से सब जान लिया जाता है। यह एक क्या है?’

तो उद्दालक ने कहा: ‘फिर तू वापिस जा। यह तू जान कर अभी आ गया, इससे तू ब्राह्मण नहीं होगा। और हमारे कुल में हम जन्म से ही ब्राह्मण नहीं होते; हमारे कुल में हम जान कर ब्राह्मण होते रहे हैं। तू जा। तू जान कर लौट। ऐसे न चलेगा। तू शास्त्र सिर पर रख कर आ गया है, बोझ तेरा बढ़ गया है। तू निर्भार नहीं हुआ है, शून्य नहीं हुआ, तेरे भीतर ब्रह्म की अग्नि नहीं जली, अभी तू ब्राह्मण नहीं हुआ। और ध्यान रख, हमारे कुल में इस तरह हम ब्राह्मण होने का दावा नहीं करते कि पैदा हो गये तो बस ब्राह्मण हो गये; अब तो ब्राह्मण घर में पैदा हो गये तो ब्राह्मण हो गये! ब्रह्म को जान कर ही हमारे पुरखे दावे करते रहे हैं। और जब तक यह जानना न हो जाए, लौटना मत अब।’

गया श्वेतकेतु वापिस। बड़ी कठिन-सी बात मालूम पड़ी। क्योंकि गुरु जो जानते थे, सब जान कर ही आ गया है। जब गुरु को जाकर उसने कहा कि मेरे पिता ने ऐसी उलझन खड़ी कर दी है कि वे कहते हैं, उस एक को जान कर आ, जिसे जानने से सब जान लिया जाता है; और जिसे बिना जाने सब जानना व्यर्थ है। वह एक क्या है? आपने कभी बात नहीं की! तो गुरु ने कहाः उसकी बात की भी नहीं जा सकती। शब्द में उसे बांधा भी नहीं जा सकता। लेकिन अगर तू तय करके आया है कि उसे जानना है तो उपाय हैं। शब्द उपाय नहीं है। शास्त्र उपाय नहीं, सिद्धांत उपाय नहीं। वह तो मैंने तुझे सब समझा दिया। तू सब जान भी गया। तू उतना ही जानता है जितना मैं जानता हूं। लेकिन अब तू जो बात उठा रहा है, यह बात और ही तल की है, और ही आयाम की है। एक काम कर-जा गौओं को गिन ले आश्रम में कितनी गौएं हैं, इनको ले कर जंगल चला जा। दूर से दूर निकल जाना; जहां आदमी की छाया भी न पड़े, ऐसी जगह पहुंच जाना। आदमी की छाया न पड़े, ताकि समाज का कोई भी भाव न रहे।

तो गुरु ने कहाः दूर निकल जाना जहां आदमी की छाया न पड़ती हो। गौओं के ही साथ रहना, गौओं से ही दोस्ती बना लेना। यही तुम्हारे मित्र, यही तुम्हारा परिवार।

निश्चित ही गौएं अदभुत हैं। उनकी आंखों में झांका। ऐसी निर्विकार, ऐसी शांत!

कभी संबंध बनाने की आकांक्षा हो श्वेतकेतु , तो गौओं की आंखों में झांक लेना। और तब तक मत लौटना जब तक हजार न हो जाएं। बच्चे पैदा होंगे, बड़े होंगे। गौएं ,चार सौ गौएं थीं आश्रम में, उनको सबको ले कर श्वेतकेतु जंगल चला गया। अब हजार होने में तो वर्षों लगे। बैठा रहता वृक्षों के नीचे, झीलों के किनारे, गौएं चरती रहतीं; सांझ विश्राम करता, उन्हीं के पास सो जाता। ऐसे दिन आए, दिन गये; रातें आईं, रातें गईं; चांद उगे, चांद ढले; सूरज निकला, सूरज गया। समय का धीरे-धीरे बोध भी न रहा, क्योंकि समय का बोध भी आदमी के साथ है। कैलेंडर तो रखने की कोई जरूरत नहीं जंगल में। घड़ी भी रखने की कोई जरूरत नहीं। यह भी चिंता करने की जरूरत नहीं कि सुबह है कि सांझ है कि क्या है कि क्या नहीं है। और गौएं तो कुल साथी थीं, कुछ बात हो न सकती थी। गुरु ने कहा था, कभी-कभी उनकी आंख में झांक लेना तो झांकता था; उनकी आंखें तो कोरी थीं, शून्यवत ! धीरे-धीरे श्वेतकेतु शांत होता गया, शांत होता गया। कथा बड़ी मधुर है। कथा है कि वह इतना शांत हो गया कि भूल ही गया कि जब हजार हो जाएं तो वापिस लौटना है। जब गौएं हजार हो गई तो गौओं ने कहाः ‘श्वेतकेतु, अब क्या कर रहे हो? हम हजार हो गये। गुरु ने कहा था…। अब वापिस लौट चलो आश्रम। अब घर की तरफ चलें।’ गौओं ने कहा, इसलिए वापिस लौटा। कथा बड़ी प्यारी है। गौओं ने कहा होगा, ऐसा नहीं। लेकिन इतनी बात की सूचना देती है कि ऐसा चुप हो गया था, मौन कि अपनी तरफ से कोई शब्द न उठे; खयाल भी न उठा। अतीत जा चुका। मन के साथ ही गया अतीत – मन के साथ ही चला जाता है। इस मौन क्षण में एक जाना जाता है।

लौटा। गुरु द्वार पर खड़े थे। देखते थे, गुरु ने अपने और शिष्यों से कहाः ‘देखते हो! एक हजार एक गौएं लौट रही हैं।’ एक हजार एक! क्योंकि गुरु ने श्वेतकेतु को भी गौओं में गिना। वह तो गऊ हो गया। ऐसा शांत हो गया जैसे गाय। वह उन गऊओं के साथ वैसा ही चला आ रहा था जैसे और गायें चली आ रही थीं। गऊओं और उसके बीच इतना भी भेद नहीं था कि मैं मनुष्य हूं और तुम गाय हो।

भेद गिर जाते हैं शब्द के साथ; अभेद उठता है निःशब्द में।

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