विवेकानंद के भीतर वेश्या को देखकर हुआ सन्यास का जन्म

(संकलन एवं प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द)

विवेकानंद ने कहीं एक संस्मरण लिखा है। लिखा है कि जब पहली पहली बार धर्म की यात्रा पर उत्सुक हुआ, तो मेरे घर का जो रास्ता था, वह वेश्याओं के मोहल्ले से होकर गुजरता था। संन्यासी होने के कारण, त्यागी होने के कारण, मैं मील दो मील का चक्कर लगाकर उस मुहल्ले से बचकर घर पहुंचता था। उस मुहल्ले से नहीं गुजरता था। सोचता था तब कि यह मेरे संन्यास का ही रूप है। लेकिन बाद में पता चला कि यह संन्यास का रूप न था। यह उस वेश्याओं के मुहल्ले का आकर्षण ही था, जो विपरीत हो गया था। अन्यथा बचकर जाने की भी कोई जरूरत नहीं है। गुजरना भी सचेष्ट नहीं होना चाहिए कि वेश्या के मुहल्ले से जानकर गुजरें। जानकर बचकर गुजरें, तो भी वही है; फर्क नहीं है।

विवेकानंद को यह अनुभव एक बहुत अनूठी घड़ी में हुआ। जयपुर के पास एक छोटी-सी रियासत में मेहमान थे। विदा जिस दिन हो रहे थे, उस दिन जिस राजा के मेहमान थे, उसने एक स्वागत-समारोह किया। जैसा कि राजा स्वागत-समारोह कर सकता था, उसने वैसा ही किया। उसने बनारस की एक वेश्या बुला ली विवेकानंद के स्वागत-समारोह के लिए। राजा का स्वागत-समारोह था; उसने सोचा भी नहीं कि बिना वेश्या के कैसे हो सकेगा!

ऐन समय पर विवेकानंद को पता चला, तो उन्होंने जाने से इनकार कर दिया। वे अपने तंबू में ही बैठ गए और उन्होंने कहा, मैं न जाऊंगा।

वेश्या बहुत दुखी हुई। उसने एक गीत गाया। उसने नरसी मेहता का एक भजन गाया। जिस भजन में उसने कहा कि एक लोहे का टुकड़ा तो पूजा के घर में भी होता है, एक लोहे का टुकड़ा कसाई के द्वार पर भी पड़ा होता है। दोनों ही लोहे के टुकड़े होते हैं। लेकिन पारस की खूबी तो यही है कि वह दोनों को ही सोना कर दे। अगर पारस पत्थर यह कहे कि मैं देवता के मंदिर में जो पड़ा है लोहे का टुकड़ा, उसको ही सोना कर सकता हूं और कसाई के घर पड़े हुए लोहे के टुकड़े को सोना नहीं कर सकता, तो वह पारस नकली है। वह पारस असली नहीं है।

उस वेश्या ने बड़े ही भाव से गीत गाया – प्रभुजी, मेरे अवगुण चित्त न धरो! विवेकानंद के प्राण कंप गए। जब सुना कि पारस पत्थर की तो खूबी ही यही है कि वेश्या को भी स्पर्श करे, तो सोना हो जाए। भागे! तंबू से निकले और पहुंच गए वहां, जहां वेश्या गीत गा रही थी। उसकी आंखों से आंसू झर रहे थे। विवेकानंद ने वेश्या को देखा। और बाद में कहा कि पहली बार उस वेश्या को मैंने देखा, लेकिन मेरे भीतर न कोई आकर्षण था और न कोई विकर्षण। उस दिन मैंने जाना कि संन्यास का जन्म हुआ है।

विकर्षण भी हो, तो वह आकर्षण का ही रूप है; विपरीत है। वेश्या से बचना भी पड़े, तो यह वेश्या का आकर्षण ही है कहीं अचेतन मन के किसी कोने में छिपा हुआ, जिसका डर है। वेश्याओं से कोई नहीं डरता, अपने भीतर छिपे हुए वेश्याओं के आकर्षण से डरता है।

विवेकानंद ने कहा, उस दिन मेरे मन में पहली बार संन्यास का जन्म हुआ। उस दिन वेश्या में भी मुझे मां ही दिखाई पड़ सकी। कोई विकर्षण न था।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *