(संकलन एवं प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द)
रामतीर्थ सो रहे हैं अपने कमरे में। एक मित्र सरदार पूर्णसिंह उनके कमरे पर मेहमान थे स्वामी राम के।
आधी रात कुछ गर्मी थी, नींद खुल गई; बड़े चौंककर हैरान हुए। जोर-जोर से राम की आवाज आ रही है, राम! सोचा कि कहीं रामतीर्थ उठकर प्रभु-स्मरण तो नहीं करने लगे। लेकिन अभी आधी रात मालूम पड़ती है। अंधेरा है।
उठे। देखा कि राम तो बिस्तर पर मजे से सो रहे हैं। पर आवाज आ रही है। बहुत हैरान हुए कि कोई और तो आस-पास नहीं है।
एक चक्कर झोपड़े का लगा आए। कोई भी नहीं है। फिर पास आए। लेकिन जैसे राम के पास आते, आवाज बढ़ जाती; दूर जाते, आवाज कम हो जाती। तो बहुत पास आकर, पैर के पास कान रखकर सुना। भरोसा नहीं हुआ; विश्वास नहीं आया। हाथ के पास जाकर कान रखकर सुना; भरोसा नहीं आया। पूरे शरीर के रोएं-रोएं से जैसे राम की आवाज उठ रही है। घबड़ा गए कि मैं कोई सपना तो नहीं देख रहा हूं! जाकर आंखें धोईं। मैं किसी भ्रांति, किसी हेल्यूसिनेशन में तो नहीं हूं। क्योंकि यह कैसे हो सकता है कि शरीर से आवाज आए। रातभर जगे बैठे रहे, कि जब राम उठें सुबह, तो उनसे पूछ लें।
सुबह उठकर राम से पूछा, तो राम ने कहा, आ सकती है। क्योंकि जब से स्मरण हुआ उसका, तब से दिन हो या रात, भीतर तो सतत उसकी अनुगूंज चलती रहती है। हो सकता है, शरीर भी कंपित हो रहा हो और आवाज आ गई हो। हो सकता है, राम ने कहा, क्योंकि मैंने तो कभी सोते में उठकर अपने शरीर को सुनने का उपाय भी नहीं है। हो सकता है। लेकिन भीतर मेरे चलता रहता है। भीतर चलता रहता है।
कठिन नहीं है यह। क्योंकि शरीर भी तो विद्युत की तरंगों का जाल है; ध्वनि भी तो विद्युत की तरंग है। दोनों में कोई भेद तो नहीं है। और अगर भीतर बहुत गहरी अनुगूंज हो, तो कोई कारण नहीं है कि शरीर के तंतु क्यों न ध्वनित होने लगे। कोई कारण तो नहीं।
जो संगीत की गहरी पकड़ जानते हैं, उन्हें पता होगा कि अगर एक सूने कमरे में बंद द्वार करके, खाली कमरे में एक वीणा बजाई जाए और दूसरी वीणा को दूसरे कोने में खाली टिका दिया जाए, तो थोड़ी देर में उसके तार रिजोनेंस करने लगते हैं। एक वीणा बजे, दूसरी वीणा जो खाली रखी है, कोई बजाता नहीं, उसके तार भी कंपकर जवाब देने लगते हैं। रिजोनेंस पैदा हो जाता है। ध्वनियां टकराती हैं उस वीणा से, उसके तार भी कंपित होकर उत्तर देने लगते हैं।
पूरा शरीर है तो विद्युत की तरंग। ध्वनि भी विद्युत का एक रूप है। कोई आश्चर्य तो नहीं है कि भीतर ध्वनि बहुत गहरे, हृदय की अंतर-गुहा तक गूंजने लगे, तो शरीर रिजोनेंस करने लगे, रो-रो शरीर का कंपने लगे।
ऐसे भी, अगर मैं बहुत प्रेम से भरा हुआ हाथ आपके हाथ पर रखूं, तो मेरे हाथ की तरंगों में भेद होगा। और मैं क्रोध से भरकर और घृणा से भरकर यही हाथ आपके हाथ पर रखें, तो मेरी हाथ की तरंगों में भेद होगा। मेरे हृदय के भाव मेरे हाथ की तरंगें बनते तो हैं। इसलिए प्रेम से छुआ गया हाथ कुछ और ही स्पर्श लाता है। घृणा से छुआ गया हाथ कोई और ही स्पर्श लाता है। अभिशाप से भरे हाथ में जहर आ जाता है। वरदान से भरे हाथ में अमृत बरस जाता है।
