जो विद्वान है उसे प्राणवान के पास जाना ही चाहिए … जैसे सरहा को मिला तीरंदाज स्त्री का मार्गदर्शन

(संकलन एवं प्रस्तुति मक्सिम आनंद)

सरहा महाराष्ट्र के विदर्भ प्रांत में पैदा हुआ। सम्राट महापाल के दरबार में एक विद्वान ब्राह्मण था। सरहा उस ब्राह्मण का पुत्र था। सम्म्राट अपनी पुत्री का विवाह सरहा के साथ करने को तैयार था। लेकिन सरहा संन्यास लेना चाहता था। वह श्रीकीर्ति नामक बौद्ध भिक्षु का शिष्य बना।

श्रीकीर्ति ने सबसे पहली बात जो सरहा से कही वह थीः ‘सारा पांडित्य छोड़ दो। वेदों को भूल जाओ।’ वर्ष बीतते चले गए और सरहा बहुत बड़ा ध्यानी बन गया। एक बार ध्यान में बैठे-बैठे उसने एक दृश्य देखा कि बाजार में एक स्त्री है जो उसकी असली गुरु बनने वाली है। श्रीकीर्ति ने उसे मार्ग दिखा दिया था लेकिन असली मार्गदर्शन एक स्त्री से होने वाला था।

सरहा ने श्रीकीर्ति से कहा, ‘आपने मेरी तख्ती साफ कर दी, अब मेरे काम का शेष आधा हिस्सा करने के लिए मैं तैयार हूं।’ कीर्ति हंस पड़ा और उसने अपने आशीष सरहा को दिए।

जैसी स्त्री सरहा ने ध्यान में देखी थी, ठीक वैसी ही स्त्री उसे बाजार में दिखाई दी। वह तीर बना रही थी। वह तीरंदाज थी, निम्न जाति की थी। सरहा जैसा उच्च वर्ण ब्राह्मण जो राज-दरबार में रहा हो, एक तीरंदाज स्त्री के पास जाए वह गहरा प्रतीक है। जो विद्वान है उसे प्राणवान के पास जाना ही चाहिए। जो नकली है उसे असली के पास जाना चाहिए।

सरहा ने उस स्त्री को देखा – युवा स्त्री थी, जीवंत, जीवन से लहलहाती हुई। तीर को छील रही थी और उसमें पूरी तरह डूबी हुई थी। उसकी शख्सियत में सरहा को कुछ असाधारण बात महसूस हुई। वह अपने काम में बिलकुल खो गई थी।

सरहा ने ध्यान से देखाः जैसे ही तीर बन गया, वह स्त्री एक आंख बंद करके दूसरी आंख खोल रही थी और दूसरी आंख किसी अदृश्य लक्ष्य को देख रही थी।

और कुछ घट गया। कुछ तार जुड़ गया। उस क्षण में वह जो कर रही थी उसका आध्यात्मिक संकेत सरहा के खयाल में आ गया। वह न तो दाएं देख रही थी, न बाएं। सरहा ने कितनी ही बार इसके बारे में सुना था, पढ़ा था, उस पर सोचा था, दूसरों के साथ तर्क किया था कि मध्य में होना ही सम्यक है। अब पहली बार उसने इसे वास्तव में घटते देखा था। और वह स्त्री इस कृत्य में इस तरह डूब गई थी, उस कृत्य में इतनी समग्र थी।

यह भी बुद्ध की देशना है- किसी कृत्य में समग्र होने का अर्थ है, उस कृत्य से मुक्त हो जाना। समग्र होओ, और तुम मुक्त हो जाओगे।

उस स्त्री का सौंदर्य, उसकी दीप्ति इसलिए थी क्योंकि वह उस काम में पूर्णता से लीन हो गई थी। पहली बार उसकी समझ में आया कि ध्यान क्या होता है। ध्यान ऐसा नहीं है कि तुम खास समय बैठो और मंत्र जाप करो, या कि चर्च और मंदिर और मस्जिद जाओ। ध्यान रोज की जिंदगी में ही होता है। छोटी-छोटी चीजों को भी तुम इतनी समग्रता से करो कि हर कृत्य में तुम्हारी गहराई प्रकट हो। सरहा ने उसे अनुभव किया- इतनी तीव्रता से कि उसे लगभग छू सकता था। उस तीरंदाज स्त्री के मार्गदर्शन में सरहा तांत्रिक बना। गुरु और शिष्य आत्मा के मीत होते हैं। सरहा को उसकी आत्मा का मीत मिल गया। उनके बीच अपरिसीम प्रेम था, गहन प्रेम था जो कि धरती पर कम ही घटता है। उसने सरहा को तंत्र की शिक्षा दी।

सर्वप्रथम सरहा को सभी वेदों और शास्त्रों को त्यागना पड़ा, ज्ञान को तिलांजलि देनी पड़ी। अब उसने ध्यान भी छोड़ दिया। अब गीत गाना ही उसके लिए ध्यान था। नाचना ही ध्यान था। उत्सव उसकी जीवन-शैली थी।

सरहा और वह तीरंदाज स्त्री एक मरघट पर रहने लगे। मरघट पर रहना और उत्सव मनाना। जहां मौत के सिवाय और कुछ भी नहीं है, अगर तुम वहां मस्ती से जी सको तो तुम्हें वस्तुतः आनंद का स्रोत मिल गया। सरहा के अंतस में क्रीड़ा प्रविष्ट हो गई। और उसके माध्यम से सत्य धर्म का जन्म हुआ।

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