क्रोध के नाटक के बिना जिन्दगी को चलाना मुश्किल है। कभी उसका उपयोग भी है। करो क्रोध- नाटक की तरह, …

(संकलन एवं प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द)

कमल पूरब में बहुत गहरा प्रतीक है। और कमल का फूल है भी बहुत रहस्यपूर्ण। बाहर जो कमल का फूल है वो भी बारी महस्यपूर्ण है। तो भीतर का कमल का तुम अंदाज नहीं लगा सकते। बाहर के कमल की कुछ खूबियां समझ लो, क्योंकि बाहर के कमल में भी भीतर के कमल की थोड़ी-सी झलक है।

बाहर के कमल की पहली तो खूबी यह है कि वह मिट्टी से, गंदी मिट्टी से पैदा होता है- और उस जैसा पवित्र फूल नहीं है। कूड़ा-करकट, कचरा, कीचड़ उससे कमल पैदा होता है, लेकिन कमल जैसी पवित्र पंखुरी तुम कहीं भी न पा सकोगे। कमल जैसी कोमल, ताजी… और कीचड़ से पैदा होता है। तो कमल बड़े से बड़ा रूपांतरण है। कीचड़ से कमल-बड़े से बड़ी क्रांति है। तो तुम अपनी कीचड़ से परेशान मत होना। माना कि कीचड़ है, बहुत कीचड़ है-उस पर तुम ध्यान भी मत देना। भीतर कमल भी खिल रहे हैं उस कीचड़ में। तुम ध्यान कमल पर देना। चोरी है, बेईमानी है, झूठ है, फरेब है, ईर्ष्या है, द्वेष है, घृणा है, माया, मोह-मत्सर है- बहुत कीचड़ है। लेकिन कीचड़ है तो कमल भी होगा। तुम जरा भीतर ध्यान देना- बाहर कीचड़, भीतर कमल। और कीचड़ को मिटाने में मत लगना। क्योंकि उसी कीचड़ से कमल को पोषण मिल रहा है। कीचड़ के दुश्मन भी मत हो जाना; तुम तो कमल की तलाश करना। और जिस दिन तुम कमल को पहचान लोगे उस दिन कीचड़ को भी धन्यवाद दोगे। उस दिन तुम कहोगे, इस शरीर का भी मैं अनुगृहीत हूं, क्योंकि इसके बिना यह कमल कैसे खिलता। अगर तुम कीचड़ ही कीचड़ होते तो किसको यह खयाल उठता कि कीचड़ को बदलें; किसको यह खयाल उठता कि रूपांतरण करें; किसको यह खयाल आता कि क्रांति करें, किसको यह खयाल आता कि शुभ, सत्य, सुंदरम् की यात्रा करें? यह खयाल कमल का है।

तुम भीतर ध्यान दो, और तुम्हें वहां कमल खिलते दिखाई पड़ेंगे।

तो पहली तो खूबी है कमल की कि गंदी से गंदी कीचड़ से शुद्धतम, पवित्रतम पंखुड़ियां उभरती हैं। और अगर कीचड़ में कमल छिपा है, तो माया में ब्रह्म छिपा है, शरीर में आत्मा छिपा है। दूसरी कमल की खूबी है कि रहता है पानी में, लेकिन पानी छूता नहीं, रहता है पानी में लेकिन अस्पर्शित। यही तो साधक की यात्रा है । रहे संसार में, और अस्पर्शित। पानी तो चारों तरफ है, लेकिन कमल ऊपर उठ जाता है पानी के। कीचड़, पानी सबको पीछे छोड़ देता है; भाग नहीं जाता, रहता वहीं है- ऊपर उठ जाता है। और फिर वर्षा का पानी भी गिरे, ओस का पानी भी गिरे, कमल को छूता नहीं। बूंद आती है और जाती है- सरक जाती है।

कमल के पास बैठकर कभी कमल से सरकती बूंद को देखना, उस पर ध्यान करना। एक बूंद गिरती है, छूती भी नहीं, दूर ही दूर बन रहती है। इतने पास होकर भी। कमल की पंखुड़ी पर होती है। फिर भी कहीं कोई स्पर्श नहीं होता। बूंद ऐसी लगती है जैसे पानी की नहीं है, मोती है। क्योंकि अगर स्पर्श होता तो बिखर जाती, फैल जाती,। स्पर्श होता नहीं, बूंद ही रह जाती है। और जैसे ही वजन होता है, वैसे ही अपने-आप गिर जाती है। कमल अछूता रह जाता है। कमल अलग रह जाता है। कमल प्रविष्ट ही नहीं होता। बूंद अपने ही भार से गिर जाती है।
संसार अपने ही भार से गिर जायेगा। तुम परेशान मत होओ। क्रोध अपने ही भार से गिर जायेगा, तुम परेशान मत होओ। लोभ अपने ही भार से गिर जायेगा। तुम परेशान मत होओ। गिराने की कोई चेष्टा भी मत करो। तुम कमलवत् हो जाओ! बस तुम कमल जैसे हो जाओ! छूने न दो चीजों को। । क्रोध आये दूसरी बार अब, तो तुम भीतर अपने को अस्पर्शित रखो, बाहर नाटक करो क्रोध का; क्योंकि शायद जरूरत है जिन्दगी में, क्रोध के नाटक के बिना जिन्दगी को चलाना मुश्किल है। कभी उसका उपयोग भी है। करो क्रोध- नाटक की तरह, अभिनेता की तरह और भीतर अछूते बने रहो।

ये दो खूबियां कमल की हैं। ये दोनों खूबियां भीतर के कमल की भी हैं। फर्क एक है कि ‘बिना ताल जहे कंवल फुलाने।’ वहां कोई ताल नहीं है- और कमल खिलता है। क्योंकि ताल में जो कमल खिलेगा वह मुरझायेगा; आज नहीं कल, समाप्त होगा। बिना ताल के जो खिलेगा, अकारण जो खिलेगा, वह सदा रहेगा।

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