कृष्ण के गांव के बाहर एक तपस्वी का आगमन

(संकलन एवं प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द)

मैने सुना है, कृष्ण के गांव के बाहर एक तपस्वी का आगमन हुआ। कृष्ण के परिवार की महिलाओं ने कहा कि हम जाएं और तपस्वी को भोजन पहुंचा दें। लेकिन वर्षा और नदी तीव्र पूर पर और तपस्वी पार। उन स्त्रियों ने कहा, हम जाएं तो जरूर, लेकिन नाव लगती नहीं, नदी कैसे पार करेंगे? खतरनाक है पूर, तपस्वी भूखा और उस पार वृक्ष के नीचे बैठा है। भोजन पहुंचाना जरूरी है। क्या सूत्र, कोई तरकीब है? कृष्ण ने कहा, नदी से कहना, अगर तपस्वी जीवनभर का उपवासा हो, तो नदी राह दे दे। भरोसा तो न हुआ, पर कृष्ण कहते थे, तो उन्होंने कहा, एक कोशिश कर लेनी चाहिए।

जाकर नदी से कहा कि नदी, राह दे दे, अगर तपस्वी उस पार जीवनभर का उपवासा हो। भरोसा तो न हुआ, लेकिन जब नदी ने राह दे दी, तो कोई उपाय न रहा। स्त्रियां पार हुई। बहुत भोजन बनाकर ले गई थीं। सोचती थीं कि एक व्यक्ति के लिए इतने भोजन की तो जरूरत भी नहीं, लेकिन फिर भी कृष्ण के घर से भोजन आता हो, तो थोड़ा-बहुत ले जाना अशोभन था, बहुत ले गई थीं, सौ-पचास लोग भोजन कर सकें। लेकिन चकित हुई, भरोसा तो न आया, वह एक तपस्वी ही पूरा भोजन कर गया।

फिर लौटीं। नदी ने तो रास्ता बंद कर दिया था, नदी तो फिर बही चली जा रही थी। तब वे बहुत घबड़ाई कि अब तो गए। क्योंकि अब वह सूत्र तो काम करेगा नहीं कि तपस्वी जीवनभर का उपवासा हो…। लौटकर तपस्वी से कहा, आप ही कुछ बताएं। हम तो बहुत मुश्किल में पड़ गए। हम तो नदी से यही कहकर आए थे कि तपस्वी जीवनभर का उपवासा हो, तो मार्ग दे दे। नदी ने मार्ग दे दिया।

तपस्वी ने कहा, वही सूत्र फिर कह देना। पर उन्होंने कहा, अब। भरोसा तो पहले भी न आया था, अब तो कैसे आएगा? तपस्वी ने कहा, जाओ नदी से कहना, तपस्वी जीवनभर का उपवासा हो, तो राह दे दे। अब तो भरोसा करना एकदम ही मुश्किल था। लेकिन कोई रास्ता न था, नदी के पार जाना था जरूर। नदी से कहा कि नदी राह दे दे, अगर तपस्वी जीवनभर का उपवासा हो। और नदी ने राह दे दी। भरोसा तो न आया। नदी पार की। कृष्ण से जाकर कहा कि बहुत मुश्किल है। पहले तो हम तुमसे ही आकर पूछने वाले थे कि अदभुत मंत्र दिया। काम कैसे किया? लेकिन छोड़ो उस बात को अब। लौटते में और भी बड़ा चमत्कार हुआ है। पूरा भोजन कर गया तुम्हारा तपस्वी और नदी ने
फिर भी राह दी है और हमने यही कहा कि उपवासा हो जीवनभर का…।

कृष्ण ने कहा, तपस्वी जीवनभर का उपवासा ही है, तुम्हारे भोजन करने से कुछ बहुत फर्क नहीं पड़ता। पर वे सब पूछने लगीं कि राज क्या है इसका? अब हमें नदी में उतनी उत्सुकता नहीं है। अब हमारी उत्सुकता तपस्वी में है। राज क्या है? उससे भी बड़ी घटना, नदी से भी बड़ी घटना तो यह है कि आप भी कहते हैं।

तो कृष्ण ने कहा, जब वह भोजन कर रहा था, तब भी वह जानता था, मैं भोजन नहीं कर रहा हूं; वह साक्षी ही था। भोजन डाला जा रहा है, वह पीछे खड़ा देख रहा है। जब वह भूखा था, तब भी साक्षी था, जब भोजन लिया गया, तब भी साक्षी है। उसका साक्षी होने का स्वर जीवनभर से सधा है। उसको अब तक डगमगाया नहीं जा सका। उसने आज तक कुछ भी नहीं किया है; उसने आज तक कुछ भी नहीं भोगा है; जो भी हुआ है, वह देखता रहा है। वह द्रष्टा ही है। और जो व्यक्ति साक्षी के भाव को उपलब्ध हो जाता है, इंद्रियां उसके वश में हो जाती हैं।

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