(संकलन एवम् प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द)
ऐसा हुआ, एक खोजी युवक सूफी फकीर बायजीद के पास जाता है। पूछता है कि मुझे परम तत्त्व को जानना है। जीवन ऐसे ही बीता चला जा रहा है मुझे कुछ ऐसा उपाय बताएं जिससे प्रभु को पाया जा सके।
फकीर ने कहा कि अवश्य बताऊंगा लेकिन पहले तुम यह बताओ कि क्या तुमने कभी किसी से प्यार किया है? युवक बोला- प्यार! माफ कीजिए, मैं परमात्मा को खोजने आया हूं और आप प्यार की बात करते हैं।
बायजीद ने पुनः कहा कि ठीक से सोचकर बताओ क्या तुमने कभी किसी से प्रेम किया है?
युवक अकड़कर बोला कि मुझे इन फालतू बातों के लिए कहां समय है, मैं तो सारी जिंदगी ईश्वर की खोज में लगा दिया हूं।
तीसरी दफा फकीर ने फिर विनम्रतापूर्वक कहा कि अंतिम बार पूछता हूं जरा और सोचकर बताओ, क्या तुमने किसी से भी… अपनी पत्नी से, बच्चों से, अपने पिता से, मां से, या किसी मित्र से प्रेम किया है?
कठोर से दिखने वाले युवक ने कहा नहीं, नहीं, नहीं; मैंने किसी से कभी प्रेम नहीं किया। मैं केवल परमात्मा का प्यासा हूं।
फकीर की आंखों में आंसू आ गए, बोला कि फिर तो मैं तुम्हारी मदद नहीं कर सकता हूं। काश, तुमने थोड़ा सा भी प्रेम कभी संसार में किसी से किया होता तो उसी प्रेम को शुद्ध करने का मार्ग मैं बता देता। वही प्रेम एक दिन शुद्ध होकर श्रद्धा-भक्ति बन जाता।
जीसस ने कहा है कि ‘परमात्मा प्रेम है’ और ओशो ने तो यहां तक कह दिया कि ‘प्रेम ही परमात्मा है’।
कौन सा प्रेम? जब हमारे प्रेम में मिश्रित वासना और अहंकार की अशुद्धियां विदा हो जाती हैं, तब वैसा प्रेम प्रभु का द्वार बने जाता है। अहंरहित आंखों से देखा गया जगत ही ब्रह्म स्वरूप नजर आता है। प्रेमरहित नजरिये से देखा गया परमात्मा, पदार्थवत दिखाई देता है। जब हम गोविंद को भजते हैं जीवन में आनंद उतर आता है। और इस आनंद को जब हम बांटते हैं तो उस शेयरिंग का, एक्सप्रेशन, का नाम ही प्रेम है। ऐसा प्रेम भीख नहीं, दान है। आनंद की अभिव्यक्ति है शुद्ध प्रेम। इसमें किसी से कोई अपेक्षा नहीं होती, इसमें कुछ भी उपयोगिता की दृष्टि से नहीं होता, भक्त का होना मात्र प्रेममय हो जाता है। आंतरिक आनंद से प्रवाहित हो उठता है ऐसा प्रेम का झरना।
जैसे आषाढ़ का बादल बिना बरसे नहीं रह सकता, कोई नदी बिना जल दिए नहीं रह सकती, सूरज रोशनी दिए बगैर नहीं रह सकता और पेड़ बिना फल-फूल दिए नहीं रह सकता; वैसे ही भक्त का जीवन हो जाता है, वह बिना प्रेम लुटाए रह ही नहीं सकता। यही है शुद्ध प्रेम, चाहो तो महावीर के शब्दों में अहिंसा कह लो या बुद्ध की भाषा में करुणा कह लो। और यह सबके जीवन में आ सकता है यदि हम परम चैतन्य में डूबें।