(संकलन एवं प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द)
बौद्धों का बड़ा विश्वविद्यालय था, नालंदा। दस हजार विद्यार्थी थे। चीन और लंका और कंबोदिया और जापान और दूर-दूर से लोग, मध्य एशिया और इजिप्त, सब तरफ से विद्यार्थी आते थे। पैदल यात्रा थी। जो चल पड़ा, वह लौटकर भी आएगा घर वापस, इसका पक्का न था। लोग रो लेते थे; मान लेते थे कि यह आदमी मरा।
जो भी तीर्थयात्रा को जाता, लोग रो लेते और गांव के बाहर जाकर विदा कर आते कि गया यह आदमी, अब क्या लौटेगा! घने जंगल थे, पहाड़-पर्वत थे, भयंकर खाइयां थीं, डाकू थे, जंगली जानवर थे। और फिर जो गया है ऐसी खोज में, वह कहीं लौटता है! यह खोज ऐसी है।
नालंदा जैसी जगह में, जहां ज्ञानियों का वास था, वहां वर्षों लग जाते। जवान आते लोग और बूढ़े हो जाते। और जब तक गुरु कह न दे कि हां, पूरी हो गयी बात…।
तीन विद्यार्थी आखिरी परीक्षा पार कर लिए थे, लेकिन गुरु जाने के लिए नहीं कह रहा था। आखिर एक दिन एक ने पूछा कि हम सुनते हैं कि आखिरी परीक्षा भी हमारी हो गयी, लेकिन लगता है हुई नहीं, क्योंकि हमसे जाने के लिए नहीं कहा जा रहा है। बीस वर्ष हो गए हमें आए हुए। घर के लोग जीवित हैं या नहीं; जिनको पीछे छोड़ आए हैं, वे बचे भी या नहीं; मां-बाप बूढ़े हैं! अब हम जाएं अगर हमारी परीक्षा पूरी हो गयी हो ?
तो गुरु ने कहा, आज सांझ तुम जा सकते हो।
लेकिन आखिरी परीक्षा शेष रह गयी थी। पर आखिरी परीक्षा ऐसी थी कि वह ली नहीं जा सकती थी; वह तो एक तरह की कसौटी थी, जिसमें से गुजरना पड़ता।
सांझ को तीनों विद्यार्थी विदा हुए। दूर नगर है, जहां रात जाकर टिकेंगे। सांझ होने लगी, सूरज ढल गया। एक झाड़ी के पास आए। गुरु झाड़ी में छिपा बैठा है। उसने झाड़ी के बाहर कांटे बिछा दिए हैं; छोटी-सी पगडंडी है, कांटे बिछा दिए हैं। एक विद्यार्थी पगडंडी से नीचे उतरकर, कांटों को पार करके आगे बढ़ गया। दूसरे विद्यार्थी ने छलांग लगा ली। तीसरा रुक गया और कांटों को बीनकर झाड़ी में डालने लगा।
उन दो ने कहा, यह क्या कर रहे हो? जल्दी ही रात हो जाएगी। दूर हमें जाना है; जंगल है, बीहड़ है, खतरा है। ये कांटे-वांटे बीनने में मत लगो।
पर उस तीसरे विद्यार्थी ने कहा कि सूरज डूब गया है, रात होने के करीब है। हमारे बाद जो भी आएगा, उसे दिखायी नहीं पड़ेगा। हम आखिरी हैं इस पगडंडी पर आज की रात, जिनको कि दिखायी पड़ रहा है। बस, अब ढला सूरज, ढला। रात उतर रही है। इन्हीं बीनना ही पड़ेगा। तुम चलो, मैं थोड़े पीछे हो लूंगा।
और तभी वे चौंके कि झाड़ी से गुरु बाहर आ गया और उसने कहा, दो जो चले गए हैं, वापस लौट आएं, वे परीक्षा में असफल हो गए। अभी उन्हें कुछ वर्ष और रुकना पड़ेगा। और तीसरा जो रुक गया है कांटे बीनने, वह उत्तीर्ण हो गया; वह जा सकता है।
क्योंकि अंतिम परीक्षा शब्द की नहीं है; अंतिम परीक्षा तो प्रेम की है। अंतिम परीक्षा पांडित्य की नहीं है; अंतिम परीक्षा तो करुणा की है।गुरु के चरणों में बैठकर लोग सीखते थे, वर्षों लग जाते थे। अजीब-अजीब परीक्षाएं थीं। लेकिन खोजी खोज ही लेते थे उन चरणों को, जहां घूंघट उठ जाते हैं। देर लगती थी, कठिनाई होती थी। लेकिन कठिनाई की भी अपनी खूबी है। कठिनाई भी निखारती है; भीतर की राख को अलग करके झाड़ देती है, कूड़ा-करकट को जला देती है।