वे तीन पंडित! महात्मा गांधी उनसे कुछ पीछे नहीं।

(संकलन एवं प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द)

महात्मा गांधी के आश्रम में और न मालूम कितने तरह की व्यर्थ बातें चलती थीं, उनमें एक व्यर्थ बात थी नीम की चटनी। सैद्धांतिक बात है वैसे। अगर तुम आयुर्वेद के ज्ञाताओं से पूछो, तो वे कहेंगे, नौम से ज्यादा औषधि। नीम से ज्यादा सुंदर रसायन। सब दोषों से मुक्त नीम है।
तुमने कहानी सुनी ही है कि तीन पंडित काशी से घर की तरफ चले सारी शिक्षाएं लेकर। रास्ते में रुके। भूख लगी। भोजन बनाना था। तो कौन क्या काम ले। उनमें एक था जो वनस्पति शास्त्री था। लोगों ने कहा, वनस्पति-शास्त्री पास हो, तो इसी को भेजो सब्जी लेने। क्योंकि इससे ज्यादा ठीक सब्जी और कौन लाएगा!

वनस्पति-शास्त्री सब्जी लेने गया। उसने सारे शास्त्र खयाल में लाए कि श्रेष्ठतम वनस्पति क्या है ? अंततः उसने यही निर्णय लिया-नीम की पत्ती। क्योंकि नीम की पत्तियों से हानि होती ही नहीं। लाभ ही लाभ है। खून की शुद्धि होती है। बीमारियों का रेचन होता है। नीम में कोई दोष है ही नहीं। अड़चन है तो एक कि नीम कड़वी है। मगर कड़वी होने से क्या होता है। जहां इतने सुंदर लक्षण और गुण हों, वहां थोड़ी सी कड़वाहट के पीछे…! अगर अमृत कड़वा भी हो, तो छोड़ दोगे क्या? और जहर अगर मीठा भी हो, तो पी लोगे क्या ?

वह बाजार गया ही नहीं। उसने जंगल में ही नीम के झाड़ पर चढ़ कर नीम की पत्तियां तोड़ा और बड़ा प्रसन्न लौटा कि अपना वनस्पत्ति शास्त्र का ज्ञान आज काम आया।

दूसरा उनमें था व्याकरणाचार्य, ध्वनि-शास्त्र का ज्ञाता। उसने ध्वनि पर बड़ा अध्ययन किया था। तो कहा कि यह क्या करेगा ? इसके लिए क्या काम दें? उन्होंने कहा, इसे काम दें कि जब तक सब्जी आए, घी आए-आटा तो उनके पास था, चावल उनके पास था तब तक यह चूल्हा जलाए। क्योंकि लकड़ियां आवाज करेंगी- चरर मरर

चूमररः फिर जलेंगी, तो चिटकने की आवाज आएगी। और यह ध्वनि-शास्त्र का ज्ञाता है, तो यह इस तरह चूल्हा जलाएगा, जैसा चूल्हा कभी नहीं जलाया गया। और उसमें से मधुर संगीत पैदा होगा! और मधुर संगीत जिस चूल्हे में पैदा होता हो, उसमें सब्जी पके, कहना क्या। वनस्पति- शास्त्री, काशी का सबसे बड़ा वनस्पति-शास्त्री सब्जी लाए, और काशी का सबसे बड़ा ध्वनि शास्त्री चूल्हा जलाए-इससे और सुंदर संयोग क्या हो सकता है!

और तीसरा था दार्शनिक। उससे कहा कि तुम बाजार जाओ। क्योंकि तुम्हारी किताबों में हमेशा यह आता है… तर्क की किताबों में, पुरानी किताबों में यह सिद्धांत आता है कि जब हम घी को पात्र में रखते हैं, तो पात्र घी को सम्हालता कि घी पात्र को सम्हालता ? तो तुम घी खरीद लाओ। क्योंकि तुम्हें तो अब तक पक्का हो ही गया होगा कि कौन किसको सम्हालता है। तुम महापंडित हो, महा महा उपाध्याय। तुम जाओ ! वह चला। उसने घी खरीदा। शास्त्र में तो बहुत बार पढ़ा था, लेकिन घी कभी खरीदने गया नहीं था। शास्त्र में तो पढ़ा था, किताब में तो लिखा था कि पात्र ही घी को सम्हालता है। लेकिन उसने कहा कि प्रयोग तो करके देखना चाहिए-यह सच भी है या झूठ? इसके लिए कोई प्रायोगिक आधार भी है या नहीं?

पात्र में घी लेकर चला। रास्ते में उसको बहुत विज्ञासा जगी। दार्शनिक तो था ही। उसने पात्र उलट कर देखा। सारा घी गिर गया। उसने कहा कि शास्त्र ठीक कहते हैं। शास्त्र हमेशा ठीक कहते हैं। अब यह सिद्ध हो गया कि पात्र ही घी को सम्हालता है। घी पात्र को नहीं सम्हालता। वह बड़ा प्रसन्न लौटा, हालांकि घी वगैरह कुछ लाया नहीं। और पास में पैसे थे, वे भी गए। खाली पात्र लिए चला आया। लोगों ने पूछा, इतने प्रसन्न क्यों हो? पात्र खाली। उसने कहा, तुम्हें पता नहीं कि सिद्धांत सही सिद्ध हुआ। यह इतनी बड़ी उपलब्धि है। शायद किसी दार्शनिक ने कभी प्रयोग करके देखा ही न हो; किताब में ही लिखा हो। मैं शायद पहला आदमी हूं जिसने प्रयोग किया। पात्र ही सम्हालता है- मैं तुमसे कहता हूं घी नहीं सम्हालता पात्र को।

उन दोनों ने सिर ठोंक लिया। मगर उनकी भी हालत ठीक नहीं थी।

दार्शनिक ने पूछा, और सब्जी कहां है? नीम की पत्तियों का ढेर लगा था। दार्शनिक ने कहा, यह सब्जी। वनस्पति-शास्त्री ने कहा, हमारे शास्त्र में नीम से ज्यादा और सुंदर कोई औषधि नहीं है। और सभी सब्जियों में रोग होता है। किसी सब्जी से बादी बढ़ती है। किसी सब्जी से पित्त खराब होता है। किसी सब्जी से ऐसा, किसी सब्जी से वैसा। लेकिन नीम कीटाणु नाशक है। नीम के लेने से लाभ ही लाभ है।

लेकिन चूल्हा भी जला नहीं था। सब्जी आई नहीं। घी आया नहीं। चूल्हा जला नहीं। उलटे, जो हंडी पास में थी, वह फूटी पड़ी थी। आग बुझी थी। और ध्वनि शास्त्री बड़ा आनंदमग्न बैठा था। उससे पूछा कि हुआ क्या ?

उसने कहा, हुआ यह कि शास्त्र में कहा है कि कभी भी अपशब्द को पैदा न होने दें। अपशब्द का विरोध है। और जब मैंने यह पानी चढ़ाया और आग जलाई, तो हंडी खुदुर-बुदुर, खुदुर बुदुर करने लगी। खुदर-बुदुर ध्वनि है ही नहीं। किसी शास्त्र में इस ध्वनि का उल्लेख नहीं-खुदुर-बुदुर। इसका मतलब क्या? अर्थहीन। अपशब्द। मुझसे न रहा गया। मैंने उठाया लट्ठ। क्योंकि किसी भी चीज को मिटाना हो तो जड़ से ही मिटा देना चाहिए। मारा लट्ठ, खुदुर-बुदुर खतम कर दिया। खतम करके मस्त बैठा हूं। आज जीवन में एक सुकृत्य हुआ-अपशब्द न फैलने दिया दुनिया में। क्योंकि ध्वनि में बड़ी शक्ति होती है। खुदर-बुदुर फैलता जाए, फैलता जाए, फैलता जाए-सारा आकाश खुदुर-बुदुर हो जाए। इस तरह की तरंगें मनुष्य के लिए घातक हैं। इससेमहायुद्ध तक हो सकता है। महायुद्ध और क्या है सिवाय खुदुर-बुदुर। मैंने इसको नष्ट कर दिया। ऐसे वे तीन पंडित! महात्मा गांधी उनसे कुछ पीछे नहीं। उनके आश्रम में नीम की चटनी बनती थी। आश्रमवासियों को तो लेनी ही पड़ती थी, आदेश था।

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