(संकलन एवं प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द)
बड़ी प्राचीन कथा है, हजारों-हजारों ऋषियों ने उस कहानी को कहा है और आने वाले जमाने में भी हजारों-हजारों ऋषि उस कहानी को कहेंगे। उसमें बड़ी पवित्रता समाविष्ट हो गयी है। बड़ी छोटी-सी कहानी, बड़ी सरल-सी ग्रामीण कहानी है। रामकृष्ण ने कहा एक गांव में एक अन्धा था और उस अन्धे को दूध से बहुत प्रेम था उसक मित्र जब भी आते, उसके लिए दूध ले आते। उसने एक दफा अपने मित्रों से पूछा इस दूध को मैं इतना प्रेम करता हूँ, इतना प्रेम करता हूँ कि मैं जानना चाहता हूँ कि दूध कैसा है? क्या है? मित्रों ने कहा मुश्किल है कैसे बतायें? फिर भी उसे अन्धे ने कहा कुछ तो समझायें, किसी तरह समझायें?
उसके एक मित्र ने कहा दूध बगुले के पंख जैसा सफेद होता है। अन्धा बोला मुझसे मजाक न करो। बगुले को मैं जानता नहीं, उसके पंख की सफेदी को नहीं जानता। मैं कैसे समझूगा कि दूध है। उस मित्र ने कहा बगुला जो होता हैं, उसकी गर्दन घास काटने के हंसिये की तरह टेढ़ी होती है। अन्धा बोला आप पहेलियां बुझा रहे हैं। मैंने कभी देखी नहीं हंसिया। मुझे पता नहीं, वह कैसा टेढ़ा होता हैं? तीसरे मित्र ने कहा इतनी दूर क्यों जाते हों? उसने अपना हाथ मोड़कर उस अन्धे से कहा इस हाथ पर हाथ फेरो, इससे पता चल जायेगा। कि हंसिया कैसा होता है?
उसने उसके तिरछे हाथ पर फेरा घूमा हुआ मुड़ा हुआ हाथ, औंधा हाथ। वह अन्धा नाचने लगा। वह बोला मैं समझ गया, दूध मुड़े, हुए हाथ की तरह होता है।
और रामकृष्ण ने कहा सत्य के सम्बन्ध में जो नहीं जानते हैं, उनको बतायी हुई सारी बातें ऐसी ही हो जाती हैं। इसलिए आपसे सत्य के सम्बन्ध में न कुछ कहा गया है और न कभी कुछ कहा जा सकेगा। आपसे यह कहा जा सकता है कि सत्य क्या है? आपसे इतना कहा जा सकता है कि सत्य को कैसे जाना जा सकता है। सत्य को नहीं बताया जा सकता, लेकिन सत्य की विधि का विचार किया जा सकता हैं उस विधि में श्रद्धा का कोई हिस्सा नहीं है, खोज और अन्वेषण, जिज्ञासा और अभीप्सा-उसमें किसी चीज को मान लेने की कोई जरूरत नहीं है।
जब से दुनिया के धार्मिकों ने यह शुरूआत की कि भगवान को मान लो, स्वीकार कर लो, अंगीकार कर लो, तब से जो भी विवेकशील हैं, वे सब भगवान के विरोध में खड़े हो गये हैं, क्योंकि स्वीकार करना, अज्ञान में किसी चीज को मान लेना, जिसका थोड़ा भी विचार जाग्रत हो और विवेक प्रबुद्ध हो, उसके लिए कभी भी सम्भव नहीं होगा। अपने हाथों से धार्मिकों ने धर्म को विवेक-विरोधी बनाकर खड़ा कर दिया है। तो मैं आज की सुबह आपसे यह कहना चाहूंगा कि धर्म का विवेक से कोई विरोध नहीं है। धर्म भी परिपूर्ण रूप से विवेक को प्रतिष्ठा देता है और विवेक धर्म का खण्डन नहीं है। विवेक के माध्यम से ही धर्म की परिपूर्ण उपलब्धि होती है। लेकिन अपने भीतर विवेक को जगाना होता हैं, श्रद्धा को नहीं।
विवेक और श्रद्धा मनुष्य के भीतर दो दिशाएं है। श्रद्धा का अर्थ है कि मैं मान लूं, जो कहा जाये। दुनिया के जितने प्रचारवादी हैं, सब यही चाहते हैं कि वे जो कहें, आप मान लें। दुनिया के जितने प्रापेगेण्डिस्ट हैं, चाहे वे राजनीजिक हों, चाहे धार्मिक हों, वे चाहते हैं, जो भी वे कहें, आप मान लें। उनकी कहीं हुई बात में आप को कोई इनकार न हो। उन सबकी चेष्टाएं यह हैं कि आपका विवेक बिल्कुल सो जाये और आपके भीतर एक अन्धी स्वीकृति पैदा हो जाये।
इसका परिणाम यह हुआ है कि जो बहुत कमजोर हैं और जिनके भीतर विवेक की कोई सम्भावना नहीं है या जिनका विवेक बहुत क्षत था, क्षीण हो गया था या जो साहस नहीं कर सकते थे किसी कारण से अपने विवेक को जगाने का, वे सारे लोग धर्म के पक्ष में खड़े रह गये और जिनके भीतर थोड़ा भी साहस था, वे सब धर्म के विरोध में चले गये। उन विरोधी लोगों ने विज्ञान को खड़ा किया और इन कमजोर लोगों ने धर्म को संभाले रखा।