(संकलन एवं प्रस्तुति- मक्सिम आनंद)
प्रेम की हार इस बात का सबूत है कि तुझे खोजा बाहर और नहीं मिल, अब भीतर खोजेंगे; तुझे खोजा देह में, पदार्थ में, रूप में, रंग में, नहीं मिला, अब अरूप में, निराकार में खोजेंगे; तुझे खोजा क्षणभंगुर में…।
ऐसा समझो कि रात चांद हो आकाश में, पूरा चांद हो और तुम झील के किनारे बैठे और झील शांत हो तो तुम्हें लगे कि चांद झील के भीतर है। तुमने ऊपर आंख उठाई ही न हो, तुम्हें लगे झील के भीतर चांद है।
मैंने सुना है, रमजान के दिन थे और मुल्ला नसरुद्दीन एक कुएं के पास बैठा था। प्यास लगी तो कुएं में झांक कर उसने देखा कि पानी कितनी दूर है। पूरे चांद की रात थी। चांद नीचे दिखाई पड़ा। उसने कहा: “अरे बेचारा, कहां कुएं में फंस गया! इसको कोई निकाले!’ यहां कोई दिखाई भी नहीं पड़ता। एकांत जगह थी। तो अपनी प्यास तो छोड़ दी उसने। रस्सी फेंकी कुएं में कि किसी तरह चांद को फांस ले तो निकाले, नहीं तो दुनिया का क्या होगा! रस्सी फंस गई कहीं कुएं में कोई चट्टान में, तो उसने सोचा कि ठीक है, फंस गई चांद में। उसने बड़ी ताकत लगाई। ताकत का परिणाम यह हुआ कि रस्सी टूट गई, वह धड़ाम से गिरा। जब वह गिरा तो उसे चांद ऊपर दिखाई पड़ा। तो उसने कहा: “कोई हर्जा नहीं, थोड़ी हमें चोट भी लग गई; मगर बड़े मियां तुम छूट गए, यह बहुत।’
संसार में जो हमने देखा है वह कुएं में चांद की झलक है। संसार में जो हमने देखा है वह प्रतिबिंब है परमात्मा का। परमात्मा की तरफ हमारी आंख अभी उठी नहीं। हमें पता भी नहीं कि कैसे ऊपर आंख उठाएं।
सारी दुनिया के धर्म जब प्रार्थना करते हैं तो आकाश की तरफ आंख उठाते हैं। वह प्रतीक है।
आकाश में परमात्मा नहीं है; मगर ऊपर उठना है, ऊपर देखना है। कहीं ऊपर, कहीं हमसे ऊपर है! कैसे अपने से ऊपर देखें, इसका हमें कुछ पता नहीं है। हमें अपने से नीचे ही देखने की आदत है। वही सुगम है।
जब भी तुम वासना से भर कर किसी की तरफ देखते हो, तुम नीचे देखते हो। और जब तुम प्रार्थना से भर कर किसी की तरफ देखते हो तब तुम ऊपर देखते हो। यह जो ऊपर देखना है, यह भक्ति है।