डुमन लाल ध्रुव की छत्तीसगढ़ी कहानी “मन के पांखी” का परिदृश्य- एक समीक्षा: डॉ. कविता वैष्णव

(लोक असर के लिए डॉ. कविता वैष्णव की समीक्षा)

छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह “मन के पांखी” के लेखक श्री डुमन लाल ध्रुव साहित्यिक जगत में अपनी पृथक पहचान बना चुके हैं। छत्तीसगढ़ी में कथा कहने की उनकी अपनी विशिष्ट शैली है। ध्रुव जी की सहज , सुबोध भाषा- शैली कहानी को लोक-संस्कृति के मूल संदर्भों में अभिव्यक्त करने में सक्षम है। ध्रुव जी के साहित्य में उनके व्यक्तित्व की सहजता, जीवनानुभवों, विचारों एवं लोकसंवेदना की स्पष्ट झलक दिखाई देती है। ध्रुव जी एक कुशल गद्यकार भी हैं, उनके गद्य के नवीन स्वर में निज लय के साथ सामाजिक सरोकार भी स्वतः अभिव्यक्त हो जाता है।उनकी कहानियों की ग्रामीण पृष्ठभूमि, विषयवस्तु एवं पात्र लोकसंवेदना की मार्मिकता से ओत-प्रोत हैं। उन्होंने अपनी कहानियों में विषय वैविध्य के साथ-साथ सामाजिक प्रश्नों एवं चुनौतियों की ओर ध्यान आकृष्ट किया है।
ध्रुव जी के कहानी संग्रह ”मन के पाखी” में संग्रहित प्रथम कहानी ’’कारी’’ जीवन के संघर्षों के बीच नवीन आशा की किरण बनकर उभरती है।
“रमा हा चिल्ला के बड़े ही खुशी के साथ किहिस देख मंय कहते रेहेंव के कारी एक दिन जरूर आही। इही मोर कारी बेटी ए। कारी मरे नइहे कारी एक प्रवृत्ति हे, एक अच्छाई ए, कारी पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के कलम आय जेखर अस्तित्व हा कभु समाप्त नइ होवय। कारी एक नांव ए, सेवा के धार ए, जउन कभुच नइ सुखाय, जउन कभुच नइ सुखाय। मंय कहत रेहेंव ना ’कारी’ जरूर आही, जरूर आही। “
संग्रह की द्वितीय कहानी ’’अपन डेरवठी’’ एक ऐसी कहानी है जो लोकभाषा की सरसता एवं सहजता की अभिव्यक्ति के साथ-साथ मानव के अंतर्मन की वेदना एवं संत्रास को स्पष्ट करने में सक्षम है।
“मोला अपन डेरवठी म पहुंचा दे माटी के चोला हे कब फट ले फूट जाही कोनो ठिकाना नइहे। उहां रहि जहूं तो अपन डेरवठी के माटी म मिल जाहूं।”
”आंखी के दिया” कहानी स्त्री के कोमल मन के निजी अनुभव संसार की कथा है जिसमें सामाजिक मर्यादाबोध और निजता के अंतर्द्वंद्व के बिम्बों की अभिव्यक्ति है।
“नहीं रतन अइसन बात नइ हे आज मोर आंखी के दिया बनके तुंहर अंजोर म मेहर अपन चेहरा ल देखत हंव अउ गुनत हंव तोर जिनगी के हियाव खातिर।”
कहानीकार डुमन लाल ध्रुव जी ने विचारों के ठोस धरातल पर खड़े होकर ’’बेटा के आस’’ कहानी के कथ्य को नवीन दृष्टि प्रदान करते हुए माता-पिता के त्याग और पुत्र के स्वार्थपूर्ण दुराग्रह का यथार्थ चित्रण किया है ।
“बार-बार बेटा के फोन अउ हर बार अकेली दाई के बुलावा के बात सुनके शिवरतन अपन आप ला रोक नइ पाइस। वहू हा गुसियाके बेटा ला फोन म किहिस सूरज बेटा! लइका के देखभाल, नासता, खाना, घर के साफ-सफाई, झाड़ू-पोंछा खातिर तंय तोर दाई ला बुलावत हस या नउकरानी ला? ये बुढ़ापा म हमन ला का अलग-अलग रखना चाहथस तंय? अइसे कर बेटा! तंय एकझन बने असन नउकरानी खोज ले। तुमला तोर दाई के नहीं, नउकरानी के जरूरत हे। हमला हमर बाकी जिनगी जीये बर संगे-संग रहन दे बेटा बस!”
ध्रुव जी की कहानी ”बिमला” मनुष्य जीवन के संघर्षों में ईश्वर के प्रति आस्था और विश्वास की शक्ति का संचार करती दिखाई देती है।
“बिमला बोलिस, ’’कालीच महाराज, मंय संझहा बेरा तुंहर से ये संदेश देवत सुने रहेंव के समुंदर के पार कइसे किये जाय। तिंहि हा केहे रेहे ना के ’’हरि के नांव लेवत चला।’’ यदि इही समुंदर ला पार करे के तरीका हे, तो नदी ला पार करे बर भी इहीच हे? तुमन पहिली से जानते रहेव फेर मोला कभुव नइ बतायेव।’’ ’’’पंडित जी गद्गद् स्वर म बोलिस, ’’तंय धन्य हस बिमला! तुंहर विश्वास हा शत-प्रतिशत् हे। अब जा। अपन ददा के तीर घर लहुट जा। मोर दुलोरिन बेटी, तंय नदी ला अइसनेव नहीं, ये जिनगी के अगम अपार गहिर समुंदर ला घलो पार कर लेबे, काबर के तंय अपन जिनगी म हरि के डोंगा लेना सीख गे हस।’’
यशस्वी साहित्यकार स्व.श्री नारायण लाल परमार जी के सान्निध्य का विशेष प्रभाव डुमन लाल ध्रुव जी के व्यक्तित्व और कृतित्व में दिखाई देता है।
उनकी कहानियां अभिजात्य जीवन की चकाचौंध, टकराव, बिखराव, हताशा, खोखलेपन और भ्रांतियों में नहीं उलझी हैं बल्कि साधारण जन-मन की कोमल भावनाओं को उन्होंने गहरी संवेदनशीलता से स्पर्श किया है।
’’दाई के दुलार रोवे’’ कहानी में दुलारी का ममत्व और पीड़ा की गहन अनुभूति का मार्मिक चित्रांकन पाठक की संवेदना को झकझोर देता है। शिल्प की दृष्टि से डुमन लाल ध्रुव ने विविध प्रयोग किए हैं और छत्तीसगढ़ी कहानी की भावाभिव्यक्ति के लिए अनेक द्वार खोले हैं। कहानी में छुटकी के प्रति भिखारी की संवाद शैली कथा के अभ्यंतर एक और कथा बुनती है।
“दुलारी छुटकी खातिर गोहार पार-पार के रोवत रिहिस। ओला जिआय के भगवान ले भीख मांगत रिहिस, फेर ओखर सुनने वाला कोनो नइ रिहिस, न छुटकी अउ न ही भगवान। तीर-तखार खड़े लोगन ला दुलारी के बेवहार हा कोनो पागलपन ले कम नइ लगत रिहिस। ओखर अउ छुटकी के रिशता नता ला लेके हर कोनो हा अचरित होवत रिहिस। जम्मो के दिल म एके सवाल कांटा असन गड़त रिहिस ’का फुटपाथ म रहइया लइका के कहूं कोनो अपने तो नइहे…….?”
’’समे ले बलवान’’ कहानी में ध्रुव जी ने मनुष्य की आंतरिक व्याकुलता, संवेदनशीलता, सघन जीवन दृष्टि और आत्मीयता को भाषा की सहजता, मार्मिकता एवं भावपूर्ण शैली में व्यक्त किया है।
“मानकी हा घलो अपन बेटी से मिले बर आय हवय। अपन बेटी ला कई दफा बने मया लगाके अपन आदत ला सुधारे बर कहि चुके हे। सरी मंझनिया के अपन सहेली संग गये अभी तक घर लहुटे नइहे। खुशबू इसकूल ले पढ़के नानी संग लहुटगे, तब तक चंदैनी हा घलो घर पहुंच चुके रिहिस अउ बीच मुहाटी म ठाड़हे देखत रिहिस। हद होगे चंदैनी तोर अनर-बनर किंजरई हा, कहां चल दे रेहेस तंय? केकती के गुस्सा देख चंदैनी हा नान्हे लइका असन दुबकगे। बड़ मयारूक भाखा म बोलिस, गलती होगे दाई!!”
’’मन के पांखी’’ कहानी में प्रेम और आकर्षण के कल्पना लोक की विह्वलता एवं भावों की उलझन को सहज भाषा शैली के माध्यम से व्यक्त करना ध्रुव जी के लेखन कौशल की विशिष्टता है।
“मोर कलपना म वो दू नदिया के संगम रिहिस जेखर मिलन के आस म सपना संजोये रहेंव। अपन जवानी अउ अपन खूबसूरती म मोला बड़ा गरब रिहिस। ओहर मोर मया के अमानत रिहिस, जउन मंय संभाल के रखे हंव। धीर हा मोर गहना हे। मोला भरोसा रिहिस के मोर अगोरा हा कभु निसफल नइ होय। जिनगी के मंझधार म अपन मन के पांखी ले मोर मेल जोल होइस के ओखर छाप हा मोर भूखी आतमा म अपन डेरा जमाए हे। ओहर हमेशा मोरे तीर-तार म रहे के हियाव करथे। सपना के रेशमी डोर म हाथ ला बांध के मंय खुदेच हांस पारथंव, कभु-कभु तो मोर आंखी म आंसू घलो आ जाथे। हवा बैरी तीर शोर संदेश भेजत रहिथों। “
ध्रुव जी ने ’’मंझली दाई’’ कहानी के कथ्य में स्त्री के मन की अतल गहराई, पीड़ा, प्रेम, आक्रोश और द्वन्द्र को अत्यंत मार्मिकता से उकेरा है।
“ये महल अटारी, मोर बर कोनो काल कोठरी ले कम नइहे। ये रिंगीचिंगी खवई-पियई हा मोर बर जहर-महुरा हे, मोर दुख के पुछइया कोनो नइहे, परवार तितिर-बितिर होगे, संबंध म दरार आगे, ये शहर, इहां के लोग-बाग पराया से कोनो कम नइ लगे। यहू कइसन जिनगी हे। अब तो जिनगी म घलो कुछ सांस बचे हे, वहू हा का अइसने दम तोड़ देही, मोला अब इहां से जाना पड़ही अपन गांव, अपन मन के बीच अभी मोला बहुत काम करना हे। बूढ़ी सास के आंखी के आपरेशन करवाना हे, देवारिन के बहू ला हरू-गरू के समे आ गेहे, ओखर देखरेख करना हे, अइसे बहुत से काम के सुरता आत चले गे। उठिस, तो बुखार के खातिर शरीर हा साथ नइ देवत रिहिस-चक्कर खाके फिर से खटिया म बइठगे। तभे मन म कोनो कोन्टा ले अवाज आईस ‘‘मंझली दाई’’ इही आखर हा जम्मो शरीर ला हिलाके, शरीर के रग-रग म ताकत भर दिस अउ ‘मंझली दाई’ उठ खड़े होइस अपन माटी ले, अपन चिनहारी होये खातिर।”
कहानी संग्रह की अंतिम कहानी ’’तोर मया के खातिर’’ समकालीन परिदृश्य के भावबोध की प्रामाणिक अभिव्यक्ति के साथ-साथ परंपरा ज्ञान तथा नवीन वैचारिक दृष्टि को स्पष्ट करती है।
“बात हा सिरतोन म महज कालपनिक हे के ये कुंआ के पानी ला इहां के लइका, सियान, डोकरा-डोकरी, छोकरी-छोकरा अउ गांव के जम्मो लोगन हा पीथे। मोर चिट्ठी के शबद हा ये पानी म घुर-घुर के पानी के मारफत इंखर भीतरी म मोर चंदैनी के परती नवा-नवा कलपना, नवा-नवा सपना संजोके ओ कलपना, अउ ओ सपना के छंइहा चंदैनी कर जा पहुंचे। जम्मो लोगन हा लहुटत रहय। ओखर जवाब हो लोगन ला कायल बना दिस।”
लोक कथाकार डुमन लाल ध्रुव का छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह ’’मन के पांखी’’ कथ्य और शिल्प का अनूठा संकलन है जिसके कथा परिदृश्य में लोकजीवन, लोकसंस्कृति एवं मानवीय संवेदना की सुगंध व्याप्त है। यह कहानी संग्रह कहानीकार द्वारा लोकचेतना को स्पंदित करने का सफल प्रयास है।

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