थोड़ा चीजों को इस अस्तित्व पर छोड़ना सीखो, थोड़ा …जैसे बूढ़े का बोझ!

(संकलन एवम् प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द)

एक बार एक बड़ा राजा अपने रथ पर बैठा कहीं जा रहा था। रास्ते में राजा ने देखा कि एक बूढ़ा अपने सिर पर भारी बोझ उठाये सड़क के किनारे खड़ा था। बोझ इतना था कि उसकी कमर झुकी जा रही थी। राजा को उस पर दया आयी। उसने अपना रथ रुकवाया और बूढ़े से बोला,

आओ मेरे साथ रथ में बैठ जाओ, तुम्हें जहां जाना है मैं वहाँ तुम्हें छोड़ दूंगा।”

बूढ़ा रथ में बैठ गया, लेकिन अपना बोझ वह अपने सिर पर ही रखे रहा। राजा हैरान हुआ कि वह क्यों यह बोझ अभी भी ढोये चला जा रहा है, उसने बूढ़े से पूछा कि वह अपना सामान नीचे क्यों नहीं रख देता।
तो वह बोला, ‘मैं रथ पर व घोड़ों पर “और बोझ नहीं डालना चाहता। पहले ही उन्हें मेरा बोझ भी ढोना पड़ रहा है, अगर मेरे सामान का बोझ भी उन्हें ढोना पड़े तो यह उनके लिये बहुत ज्यादा हो जायेगा। आपकी बहुत कृपा है, लेकिन कम से कम मेरा बोझ मुझे ही ढोने दीजिये।

राजा बोला, ‘तुम थोड़े पागल मालूम होते हो। यदि तुम अपना बोझ अपने सिर पर भी उठाये रहते हो, तो भी यह बोझ रथ पर ही पड़ेगा। फिर क्यों बेकार में अपने सिर को दुखाते हो?’

वह बूढ़ा हंसने लगा और बोला, ‘मैं हैरान हूं कि आप मुझ पर हंसते हैं। मैं देख रहा हूं कि आप पूरे संसार का बोझ अपने सिर पर लिये हुए हैं, जबकि आप जानते हैं कि इस रथ की तरह यह विस्तीर्ण जगत ही हम सबका बोझ उठाये हुए है। मैं तो अपना बोझ उठाकर इस संसार की रीति का ही अनुसरण कर रहा था।’

वह बूढ़ा एक सूफी फकीर था। एक बिजली की कौंध की तरह राजा को समझ में आ गया कि वह उसे क्या समझाना चाह रहा था। उसे अपने अहंकार की व्यर्थता का बोध हुआ, और झुककर उसने फकीर के चरण हुए।

तुम बेकार ही अपने को परेशान किये हुए हो। नदी अपने आप बही जा रही है और तुम उसे सागर की ओर ढकेलने की कोशिश कर रहे हो। तुम्हें नदी को धक्का देने की कोई जरूरत नहीं है। तुम व्यर्थ ही अपने लिये दुख पैदा कर लोगे। थोड़ा चीजों को इस अस्तित्व पर छोड़ना सीखो, थोड़ा स्वीकारभाव लाओ, और तुम प्रसन्न रहोगे

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