(संकलन एवम् प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द)
मैं एक कहानी निरंतर कहता हूं कि एक मंदिर बन रहा है और एक आदमी वहां से गुजरा है और उसने पत्थर तोडते एक आदमी से, मजदूर से पूछा है कि तुम क्या कर रहे हो? तो उस आदमी ने उसकी तरफ देखा भी नहीं और क्रोध से कहा कि अंधे तो नहीं हो? देखते नहीं कि पत्थर तोड़ रहा हूं ?
वह आदमी आगे बढ़ा और उसने दूसरे मजदूर को पूछा कि मेरे मित्र, क्या कर रहे हो? उस आदमी ने उदासी से अपनी छिनी हथौड़ी नीचे रख दी, उस आदमी की तरफ देखा और कहा कि दिखाई तो यही पड़ रहा है कि पत्थर तोड़ रहा है, ऐसे रोटी कमा रहा हूं बच्चों के लिए, बेटों के लिए, पत्नी के लिए रोटी कमा रहा है। उसने फिर अपना तोड़ना शुरू कर दिया।
यह आदमी तीसरे आदमी के पास पहुंचा जो मंदिर की सीढ़ियों के पास पत्थर तोड़ रहा था और गीत भी गा रहा था। उसने उससे पूछा कि क्या कर रहे हो? उसने कहा, क्या कर रहा है? भगवान का मंदिर बना रहा है। उसने फिर पत्थर तोड़ना शुरु कर दिया और गीत गाना शुरू कर दिया।
ये तीनों आदमी एक ही काम कर रहे है, तीनों पत्थर तोड़ रहे हैं। लेकिन इन तीनों का सोचने का ढंग पत्थर तोड़ने के बाबत भिन्न है। वह जो तीसरा आदमी है, पत्थर तोड़ने को उत्सव बना लिया है। सब इस पर निर्भर करता है कि आप जो कर रहे हैं, उसके प्रति आपका दृष्टिकोण क्या है। दृष्टिकोण के बदलते ही, आप का कार्य एक उत्सव में बदल जाता है। जीवन की पूरी दिशा बदला जाती है।