प्रतिरूप समारोह में 7 राज्यों के साथ 8 देशों के मुखौटे एवं नृत्यों का हुआ प्रदर्शन, छत्तीसगढ़ द्वारा पंडो जनजाति सैला नृत्य की दी गई प्रस्तुति

(बिलासपुर से डा. अलका यादव की ख़ास रपट)

LOK ASAR
BALOD/ BILASPUR

जनजातीय लोक कला एवं बोली विकास अकादमी द्वारा मध्यप्रदेश जनजातीय संग्रहालय में आज 27 से 29 सितंबर तक कलाओं में मुखौटे के उपयोग आधारित प्रतिरूप समारोह का आयोजन किया गया, जिसके अंतिम दिन समारोह की शुरूआत जनजातीय लोक कला एवं बोली विकास अकादमी द्वारा कलाकारों के स्वागत से की गई।

तीन दिवसीय समारोह में प्रदेश के साथ-साथ अन्य 10 राज्यों के ऐसे नृत्यों की प्रस्तुति दी जा रही है, जिनमें मुखौटा का उपयोग किया जाता है।

29 अक्टूबर, 2024 को गौरांग नायक एवं साथी, उड़ीसा द्वारा साही जाता (जात्रा) की प्रस्तुति दी। लोक नृत्य में जात्रा भारत के पूर्वी क्षेत्र का लोक कलामंच का एक लोकप्रिय रूप है।

यह कई व्यक्तियों द्वारा किए जाने वाला एक नाट्य अभिनय है जिसमें संगीत, अभिनय,गायन और नाटकीय वाद-विवाद होता है। विशेष रूप से यह लोकनाटक बंगाल और उड़ीसा में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। धार्मिक रैली एवं अनुष्ठानों में साही जाता नृत्य का प्रदर्शन होता है, जिसमें कलाकार भगवान श्रीगणेण, नरसिंह एवं देवी के मुखौटों का उपयोग कर नृत्य में सहभागिता करता है।

पौराणिक ढोल वादन , भैरव नृत्य, जागरी संस्कृति कला मंच समिति, उत्तराखंड द्वारा रम्माण की प्रस्तुति दी गई। “रम्माण” चमोली जिले के सलूड़ गांव में प्रतिवर्ष अप्रैल में आयोजित होने वाला उत्सव है। रम्माण एक विविध कार्यक्रम, पूजा और अनुष्ठानों की एक शृंखला है, जिसमें परम्परागत पूजा-अनुष्ठान तथा मनोरंजक कार्यक्रम भी आयोजित होते हैं। इसके माध्यम से भूम्याल देवता की पूजा एवं पूर्वजों और ग्राम देवताओं को पूजा जाता है। रम्माण में भूमि क्षेत्रपाल की पूजा अर्चना और 18 पत्तर का नृत्य और 18 तालों पर राम, लक्ष्मण, सीता, हनुमान का नृत्य होता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के संगठन यूनेस्को द्वारा साल 2009 में इस रम्माण को विश्व की सांस्कृतिक धरोहर का दर्जा दिया गया था। पारंपरिक ढोल-दमाऊं की थाप पर मोर-मोरनी नृत्य, बण्या-बाणियांण, ख्यालरी, माल नृत्य रोमांचित करने वाला होता है और कुरजोगी सबका मनोरंजन करता है। अंत मे भूमि क्षेत्रपाल देवता अवतरित होकर 1 साल तक के लिए अपने मूल स्थान पर विराजित हो गए। रम्माण 500 वर्ष से भी ज्यादा पुरानी परम्परा है।

अगले क्रम में सृष्टिधर महतो एवं साथी, कोलकाता द्वारा शुम्भ-निशुम्भ की प्रस्तुति दी गई। शुम्भ-निशुम्भ दो राक्षस ब्रह‌मा जी की कठोर तपस्या कर शक्तिशाली वरदान प्राप्त करते हैं। शक्तिशाली वरदान पाकर दोनों राक्षस अपनी शक्ति का दुरुपयोग कर स्वर्ग, मर्त्य एवं पाताल तीनों लोक पर अपना अधिपत्य कर देवताओं को बाहर कर देना चाहते थे। तभी सभी देवता मिलकर माँ दुर्गा एवं माँ काली की आराधना करते हैं। माँ दुर्गा एवं माँ काली प्रकट होती हैं, और शुम्भ निशुम्भ राक्षस का वध करती हैं। इस प्रकार बुराई पर अच्छाई की जीत होती है।

जोगिंदर सिंह एवं साथी, हिमाचल प्रदेश द्वारा सिंहटू नृत्य की प्रस्तुति दी गई। सिरमौरी बोली में शेर के बच्चे को सिंहटू कहा जाता है। सिंह को मां दूर्गा भगवती का वाहन माना जाता है। सिंहटू नृत्य सिरमौर जनपद के गिरीपार हाटी जनजातीय समुदाय के लोगों का देव परम्परा से जुड़ा एक प्राचीन नृत्य है जिसमें कलाकार लकड़ी, लकड़ी के बुरादे व उड़द के आटे के पारम्परिक तरीके से बनाए गए मुखौटे पहनकर नृत्य करते हैं। सिंहदू नृत्य में सी, रीछ, राल, बणमाणुश, पोंछी, आदि कई प्रकार के मुखौटे पहनकर नृत्य किया जाता है।

इस नृत्य में ढोल, नगाड़ा, शहनाई, करनाल, बांसुरी खंजरी इत्यादि पारंम्परिक वाद्य यन्त्रों का उपयोग किया जाता है। हिमाचल के सिरमौर जनपद के गिरीपार के हाटी जनजातीय क्षेत्र की यह नृत्य परम्परा लुप्त होती जा रही है। आज भी सिरमौर जनपद में गिरीपार जनजातीय क्षेत्र के मटलोड़ी कुप्फर और लेउ नाना गाँव में देवता के मंदिर के प्रांगण में सिंहटू नृत्य दीपावली ओर एकादशी के दिन हजारों दर्शकों के मध्य किया जाता है। सिरमौर जनपद के हाटी जनजातीय क्षेत्र का आदिकालीन सिंहटू नृत्य जहां हमें पुरातन संस्कृति व हमारी देव परम्पराओं का बोध कराता है वहीं आज के युग में यह नृत्य पर्यावरण और वन्य प्राणी संरक्षण का संदेश भी देता है।

इसके बाद छबी लाल प्रधान एवं साथी, सिक्किम द्वारा लाखे एवं बज्रयोगिनी दो अलग-अलग नृत्य की प्रस्तुति दी गई। लाखे नृत्य उत्तर भारत के सबसे लोकप्रिय नृत्यों में से एक है। त्योहारों के दौरान लाखे पोशाक और मुखौटा पहने कलाकार नृत्य करते हैं। मुखौटा कागज़ की लुगदी से बना होता है और बालों के लिए याक की पूंछ का उपयोग किया जाता है।

बज्रयोगिनी नृत्य नेवार समुदाय द्वारा किया जाता है। साथ ही नेवार समुदाय की चार देवियों में से एक हैं बज्रयोगिनी, जो योग क्रियाओं की देवी के रूप में प्रतिष्ठित हैं। बज्रयोगिनी नृत्य नेवार समुदाय के विभिन्न नृत्यों में से यह एक अनुशासन का नृत्य है और यह नेवार समुदाय का प्राचीन शास्त्रीय नृत्य भी माना जाता है। बज्रयोगिनी नृत्य प्रतीकात्मक हाथ की गतिविधियों एवं चेहरे के हाव-भाव से भरपूर और लाल पोशाक धारण कर नर्तक प्रस्तुति देता है।

वहीं चाउ सरथाम नामचूम (Chow saratham namchoom) एवं साथी, अरूणाचल प्रदेश द्वारा खामटी (खामती) जनजाति का हिरण नृत्य प्रस्तुत किया गया। कई ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार, भगवान बुद्ध अपने पिछले जीवन में एक स्वर्ण हिरण के रूप में पैदा हुए थे और वह हिरण बहुत ही सुंदर स्वर्ण हिरण था, जो बहुरंगी हिरण की तरह चमकते थे। उनका जन्म अन्य जानवरों को उनके राजा के रूप में मार्गदर्शन करने के लिए हुआ था। इसी के चलते खामती (खामटी) समुदाय द्वारा संरक्षण और कथानक के द्वारा हिरण की पोशाक पहनकर नृत्य किया जाता है।

पंडित राम एवं साथी, छत्तीसगढ़ द्वारा पंडो जनजाति सैला नृत्य की प्रस्तुति दी गई। मध्यप्रदेश के सरगुजा जिले के जंगल एवं पहाड़ी क्षेत्रों में पण्डो जनजाति निवास करती है। पण्डो लोग अपना सम्बन्ध महाभारत से जोड़ते हैं और अपने को पाण्डवों का वंशज मानते हैं। पण्डो जनजाति में करमा नृत्य पारम्परिक रूप से किया जाता है, जिसमें सिर्फ पुरूष नर्तक भाग लेते हैं। वर्ष में एक बार पण्डो करमा त्यौहार मनाते हैं। इस दिन करमा वृक्ष की शाखा रोपित कर उसके चारों ओर युवक करमा नृत्य करते हैं। मांदर, बांसुरी और झाल के सम्मिलित ताल पर गीत गाते हुए पण्डो करमा नृत्य करते हैं। अर्द्ध वृत्त, चक्राकार और स्वास्तिक आकार की नृत्य संरचनाएँ पण्डो जनजाति की करमा नृत्य की प्रमुख विशेषताएँ है।

पद्मश्री अर्जुन सिंह धुर्वे एवं साथी, डिंडोरी द्वारा फाग नृत्य की प्रस्तुति दी गई। यह नृत्य होली के दिन से तेरह दिनों तक किया जाता है। फाग नृत्य में एक लकड़ी का बना मुखौटा, जिसे बैगा बोली में खेखड़ा कहते है। इसे हिरण्यकश्यप के रुप में बीच में रखकर तथा बांस के बने मुखौटे गिज्जी को होलीका के रुप बीच रखकर नृत्य किया जाता है। इस नृत्य में पुरुष महिला दोनों भाग लेते है। इस नृत्य में मुख्य वाद्य, मांदर, टिमकी, बांसुरी हैं।

समारोह में पहली बार अंतर्राष्ट्रीय मुखौटा आधारित प्रदर्शनी प्रतिरूप हिमालय विश्व संग्रहालय, सिक्किम के सहयोग से प्रदर्शित की गई, जिसमें भारत के 7 राज्यों सहित 8 देशों के कलाओं में मुखौटे प्रदर्शित किये गए। प्रदर्शनी में ऐसे लगभग 100 मुखैटे प्रदर्शित किये गए, जो भारत सहित सहित नेपाल, भूटान, तिब्बत, बांग्लादेश, फिजी, मलेशिया, श्रीलंका और इंडोनेशिया एवं अन्य देशों के मुखौटे प्रदर्शित रहे।

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