साधु-असाधु दोनों के पार एक तीसरी यात्रा है संत की, उस तरफ …

(संकलन एवं प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द)

बौद्ध कथा है: एक बौद्ध भिक्षु रास्ते से गुजर रहा है। सुंदर है।और भिक्षु अक्सर सुंदर हो जाते हैं। संन्यासी अकसर सुंदर हो जाते हैं। क्योंकि संसार इतना कुरूप है, उसमें जी-जीकर चेहरा भी कुरूप हो जाता है। उसमें लगे-लगे चेहरे पर भी वे सब घाव बन जाते हैं, जो चारों तरफ हैं। और बुरा करते-करते बुराई की रेखा भी आंखों में खिंच जाती है। संन्यासी सुंदर हो जाते है। इसलिए संन्यासी बड़े आकर्षक हो जाते हैं। और स्त्रियां जितनी संन्यासियों के प्रति मोहित होती हैं, किसी के प्रति मोहित नहीं होतीं।

एक वेश्या ने उसे रास्ते से गुजरते देखा। और उन दिनों वेश्या बड़ी बहुमूल्य बात थी। इस मुल्क में उन दिनों बिहार में, बुद्ध के दिनों में जो नगर में सबसे सुंदर युवती होती, वही वेश्या हो सकती थी। एक समाजवादी धारणा थी वह। वह धारणा यह थी कि इतनी सुंदर स्त्री एक व्यक्ति की नहीं होनी चाहिए। इसलिए इसको पत्नी नहीं बनने देंगे। इतनी सुंदर स्त्री सबकी ही हो सकती है। इसलिए वह नगर-वधू कही जाती थी। और नगर-वधू का सौभाग्य श्रेष्ठतम स्त्रियों को मिलता था। और यह गौरव का पद था, क्योंकि पत्नी होना तो बहुत आसान है, लेकिन नगर-वधू होना बड़ा कठिन है।

यह नगर-वधू थी, और उसने अपने महल से नीचे झांककर देखा, और यह शानदार भिक्षु अपनी मस्ती में चला जा रहा है। वह मोहित हो गई। वह भागी। उसने जाकर भिक्षु का चीवर पकड़ लिया। और कहा कि ‘रुको। सम्राट मेरे महल पर दस्तक देते हैं, लेकिन सभी को में मिल नहीं पाती; क्योंकि समय की सीमा है। यह पहला मौका है, मैं किसी के द्वार पर दस्तक दे रही हूं। तुम आज रात मेरे पास रुक जाओ।’

भिक्षु संत ही रहा होगा। उसकी आंखों में आंसू आ गए।

उस वेश्या ने पूछा कि ‘आंख में आंसू ?’

उसने कहा, ‘इसीलिए कि तुम जो मांगती हो, वह मांगने जैसा भी नहीं है। तुम्हारे अज्ञान को, तुम्हारे अंधेरे को देखकर पीड़ा होती है। आज तो तुम युवा हो, सुंदर हो। अगर मैं न भी रुका आज रात तुम्हारे घर, तो कुछ बहुत अड़चन न होगी। बहुत युवक प्यासे हैं तुम्हारे पास रुकने को। लेकिन जब कोई तुम्हारे द्वार पर न आए, तब मैं आऊंगा।’

यह संत का व्यवहार है। मना नहीं किया उसने, कि मैं नहीं आता। उसने कहा, मैं आऊंगा, लेकिन अभी तो बहुत बाजार पड़ा है। अभी बहुत लोग आने को उत्सुक है। अभी मेरी कोई जरूरत भी नहीं है। मेरी कोई-कोई उपयोगिता भी नहीं। मैं न भी आया तो तुम भूल जाओगी। और मैं आया भी तो भी दो दिन बाद भूल जाऊंगा। पानी पर खिंची लकीर है, मिट जाएगी। लेकिन जिस दिन कोई न होगा… ज्यादा देर न लगेगी, यह भीड़ छंट जाएगी। यह भीड़ सदा नहीं रहेगी। आज तुम सुंदर हो, कल तुम सुंदर न रहोगी। आज लोग तुम्हें चाहते हैं, कल तुमसे बचेंगे। आज सुंदर हो, सिर पर उठाया है। कल कुरूप हो जाओगी, गांव के बाहर फेंक देंगे। और जिस दिन कोई न होगा, उस दिन मैं आऊंगा। मुझे भी तुमसे प्रेम है, लेकिन प्रेम प्रतीक्षा कर सकता है।

उस वेश्या की समझ में कुछ न आया। क्योंकि वासना तो बिलकुल अंधी है, वह कुछ नहीं समझ पाती। करुणा के पास आंखें हैं, वासना के पास कोई आंखें नहीं हैं। लोग कहते हैं, प्रेम अंधा है। वह जो प्रेम वासना से भरा है, निश्चित ही अंधा है। लेकिन एक और प्रेम भी है, जो अंधा नहीं है। वस्तुतः उसी प्रेम के पास आंखें हैं, जो आंखों वाला है।

इस भिक्षु ने प्रेम से इनकार न किया। इसने यह न कहा कि ‘यह क्या पागलपन की बात है? हट, स्त्री! यह क्या शैतान का निमंत्रण! मेरे चीवर को छूकर भ्रष्ट किया। दूर हो। यह क्या पाप की बात!’ इसके माथे पर पसीना न आया, आंख में आंसू आए। इसे किसी वासना से कोई ज्वर पैदा न हुआ। इसने कुछ व्याख्या भी न दी। इसने कोई व्याख्या मांगी भी नहीं। इसने इतना ही कहा, ‘जब जरूरत होगी, मैं जरूर आ जाऊंगा।’

बीस वर्ष बाद, अंधेरी रात है अमावस की। और एक स्त्री पड़ी है गांव के बाहर और तड़फ रही है। क्योंकि गांव ने उसे बाहर फेंक दिया। वह कोढ़ ग्रस्त हो गई। यह वही वेश्या है, जिसके द्वार पर सम्राट दस्तक देते थे। अब दस्तक देने का तो कोई सवाल नहीं है। अब उसके शरीर से बदबू आती है। उसके पास भी कोई बैठने को राजी नहीं। उस अंधेरी रात में सिर्फ एक भिक्षु उसके सिर के पास बैठा हुआ है। वह करीब-करीब बेहोश पड़ी है। बीच-बीच में उसे थोड़ा-सा होश आता है, तो भिक्षु कहता है, ‘सुन, मैं आ गया! अब भीड़ जा चुकी है। अब कोई तेरा चाहने वाला न रहा। लेकिन मैं तुझे अब भी चाहता हूं। और मैं कुछ तुझे देना चाहता हूं, कोई सूत्र, जो जीवन को वस्तुतः सुंदर करता है। और कोई सूत्र, जो जीवन को निश्चित ही तृप्ति से भर देता है। उस दिन तूने मांगा था, लेकिन उस दिन तू ले न पाती। और जो तू मांगती थी, वह देने योग्य नहीं है। प्रेम उसे नहीं दे सकता है।’

वह भिक्षु चला भी गया। वह तीन महीने वेश्या के घर रहा। बड़ी-बड़ी कहानियां चलीं, बड़ी खबरें आईं, अफवाहें आईं कि भ्रष्ट हो गया। वह तो बरबाद हो गया, बैठकर संगीत सुनता है। पता नहीं खाने-पीनें का भी नियम रखा है कि नहीं! वह भिक्षु भीतर तो जा नहीं सकते थे, लेकिन आसपास चक्कर जरूर लगाते रहते थे। और कई तरह की खबरें लाते थे। लेकिन बुद्ध सुनते रहे और उन्होंने कोई वक्तव्य न दिया।

तीन महीने बाद जब भिक्षु आया, तो वह वेश्या उसके पीछे आई। और उस वेश्या ने कहा कि मेरे धन्यभाग कि आपने इस भिक्षु को मेरे घर रुकने की आज्ञा दी। मैंने सब तरह की कोशिश की इसे भ्रष्ट करने की, क्योंकि वह मेरा अहंकार था।

जब वेश्या तुम्हें भ्रष्ट कर पाती है, तब जीत जाती है।

वह मेरा अहंकार था कि यह भिक्षु भ्रष्ट हो जाए। लेकिन इसके सामने मैं हार गई। मेरा सौंदर्य व्यर्थ, मेरा शरीर व्यर्थ, मेरा संगीत व्यर्थ, मेरा नृत्य, इसे कुछ भी न लुभा पाया और तीन महीने में, मैं इसके लोभ में पड़ गई। और मेरे • मन में यह सवाल उठने लगा, क्या है इसके पास ? कौन-सी संपदा है, जिसके कारण मैं इसे कचरा मालूम पड़ती हूं? अब मैं भी उसी की खोज करना चाहती हूं। जब तक वह संपदा मुझे न मिल जाए, तब तक मैं सब कुछ करने को राजी हूं, सब छोड़ने को राजी हूं। अब जीने में कोई अर्थ नहीं, जब तक मैं इस अवस्था को न पा लूं, जिसमें यह भिक्षु है।

कहना मुश्किल है, संत का व्यवहार क्या होगा। साधु का व्यवहार निश्चित उस बुढ़िया ने पाया कि यह साधु तो है, संत नहीं। झोपड़े में आग लगा दी। उसने अपनी सेवा वापिस ले ली। वह सदगुरु नहीं हो सकता था। वह खुद ही अभी यात्रा का पथिक है, अभी यात्री है। अभी मार्ग पूरा होना है। और न केवल पूरा होना है, अभी मार्ग बायें की तरफ चल रहा है, उसे दायें की तरफ चलना है। न केवल वह यात्री है, बल्कि गलत यात्रा में संलग्न है।

असाधु के विपरीत साधु मत बनना। साधना में ही अगर उत्सुक हो जाए चित्त, साधना का ही अगर निमंत्रण मिल जाए, तो साधु-असाधु दोनों के पार एक तीसरी यात्रा है संत की, उस तरफ जाना – द्वंद्व के पार, अतियों के पार, विपरीत से मुक्ति।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *