(संकलन एवं प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द)
बोधिधर्म चीन गया चौदह सौ वर्ष पहले। चीन के सम्राट ने कहा, ‘मैं बहुत अशांत हूं।’ बोधिधर्म ने कहा, ‘कल सुबह आ जाओ। और ध्यान रहे, अपनी अशांति को साथ ले आना। क्योंकि तुम अगर उसे घर भूल आये, तो मैं तुम्हारा इलाज भी कैसे करूंगा?
सम्राट लौटा तो जरूर, लेकिन सोचता लौटा कि सुबह जाए या नहीं। क्योंकि यह आदमी थोड़ा पागल मालूम पड़ता है। अशांति कोई चीज तो नहीं है।
कि तुम घर रख आओगे। अशांति कोई चीज तो नहीं है; लाने-ले जाने का सवाल क्या है? रात बहुत सोचा, जाऊं न जाऊं, लेकिन यह आदमी आकर्षक भी लगा, इसकी आंखों में कोई बल भी था, इसके होने के ढंग में कोई गहराई भी थी। और जिस भांति उसने कहा था कि ले आना अशांति अपने साथ, अन्यथा मैं शांत किसे करूंगा? उसमें इतनी सचाई और प्रामाणिकता थी कि सम्राट ने सोचा, जाने में हर्ज नहीं है। प्रयोग कर लेने जैसा है। यह अवसर खोना उचित नहीं।
सुबह-सुबह सम्राट पहुंचा। अभी सूरज भी उगा नहीं था, और बोधिधर्म अपने मंदिर के बाहर बैठा हुआ था सीढ़ियों के पास। देखते ही सम्राट को कहा, ‘बैठ जाओ। और कहां है अशांति ? कहां है तुम्हारा मन? निकालो ताकि मैं उसे शांत कर दूं।’
सम्राट ने कहा, ‘व्यंग्य करते हैं, या आप विक्षिप्त हैं? अशांति कोई चीज तो नहीं है, जिसे मैं दिखा सकूं।’
बोधिधर्म ने कहा, ‘जिसे तुम देख सकते हो, उसे मैं क्यों न देख सकूंगा?
और अशांति अगर कोई वस्तु ही नहीं है, तो जो तुम्हें इतना परेशान किये है वह होगी तो जरूर; छिपी हो, कोई आवरण पड़ा हो, लेकिन जिससे तुम इतने उद्विग्न हो, जो तुम्हें रात सोने नहीं देती, पेट में गया भोजन पचने नहीं देती, जिसके कारण सारे साम्राज्य का सुख तुम भोग नहीं पाते वह अशांति होगी तो जरूर। और काफी मजबूत होगी।’
सम्राट ने कहा, ‘वह मैं जानता हूं, कि है और मजबूत है। लेकिन कोई बाहर की चीज तो नहीं है; भीतर की है।
तो बोधिधर्म ने कहा, तुम आंख बंद करो और भीतर खोजो, और जब तुम पकड़ लो तो मुझे बताना। मैं इधर बाहर तैयार बैठा हूं। तुमने उधर पकड़ा, इधर मैंने हल किया। तुम्हें शांत करके ही भेजूंगा।
सम्राट ने आंखें बंद कीं और खोजने लगा कि अशांति कहां है। मन के एक-एक कोने-कांतर में झांका। एक-एक मन की पर्त उठाकर देखी। सब वस्त्र हटाये। जैसे-जैसे खोजता गया, बड़ा हैरान हुआ; अशांति तो मिलती नहीं, उल्टे मन शांत होता जाता है।
जो व्यक्ति भी अपने भीतर अशांति की खोज पर निकल जाएगा, वह शांत – हो जाएगा। अशांति है इसलिए, कि तुमने कभी गौर से देखा नहीं। तुम्हारे न देखने में ही उसका अस्तित्व है। वह अपने आप में कुछ भी नहीं है। जैसे-जैसे पर्ते उलटने लगा, वैसे-वैसे पाया कि कोई गहरा, शांत आकाश खुलता जाता है। कोई मंदिर के द्वार खुल रहे हैं, जहां सब शांत है। उसके बाहर के चेहरे पर भी झलक आने लगी। वह धुन जो भीतर बजने लगी थी, बाहर भी फैलने लगी। घड़ी बीती, दो घड़ी बीती, सूरज ऊग आया। उस ऊगते सूरज की किरणें सम्राट के चेहरे पर पड़ रही हैं। वह शांत बैठा है; जैसे पत्थर की मूर्ति हो, बुद्ध की मूर्ति हो। आखिर बोधिधर्म ने उसे हिलाया और कहा कि बहुत हो गया। अब मुझे दूसरे काम भी करने हैं। आंख खोलो, अगर पकड़ लिया हो नो बोलो, अन्यथा कल सुबह फिर आ जाना।
सम्राट ने आंख खोली, और झुककर चरण छुए और कहा, ‘धन्य हैं। आपने मुझे शांत ही कर दिया। खोजता हूं तो अशांति पाता नहीं; नहीं खोजता हूं तो अशांति है। देखता हूं तो दिखाई नहीं पड़ती, खो जाती है। नहीं देखता, पीठ करता हूं तो बड़ी वजनी है। बड़ी भयंकर है।’
उस अशांति से तुम परेशान हो, जो है नहीं। उन बीमारियों से तुम पीड़ित हो, जिनका कोई अस्तित्व नहीं है। और जो नहीं है, बुरी तरह पकड़ लेता है। और उससे छूटते भी नहीं बनता। प्रगट कुछ होता तो छूटने का उपाय कर लेते; अप्रगट है। इतना सूक्ष्म है, ना के बराबर है। शून्य जैसा है।
