(संकलन एवं प्रस्तुति / मैक्सिम आनन्द )
आप अकेला सब करै, औरुं के सिर देई।
दादू सोभा दास कूं, अपना नाम न लेई।।
दादू कहते हैं, कर्ता वही एक है और सभी के सिरों पर बांट देता है।
आप अकेला सब करै, औरुं के सिर देई।
कर्ता अकेला है, लेकिन सभी को मजा दे देता है कि तुम्हें अपना-अपना अहंकार पूरा करना है, कर लो। कोई कहता है कि मैं महाज्ञानी! कर्ता एक है। कोई कहता है, मैं महापुण्यात्मा! कर्ता एक है; औरुं के सिर देई। कोई कहता है, मैं महात्यागी! कर्ता एक है।
लेकिन ये सिर भारी हुए जा रहे हैं।
इस धोखे में मत पड़ो। जब वह तुम्हारे सिर देने लगे, उससे कहना, तू ही सम्हाल। हमारे सिर मत दे।
दादू सोभा दास कूं…
दास की तो शोभा यही है, दादू!
…अपना नाम न लेई।
कह दे कि मेरा नाम बीच में मत ला। तू ही कर रहा है। तू ही करने वाला, तू ही न करने वाला। मुझे बीच में मत ला।
अगर तुम यह याद रख सको, अगर यह स्मरण तुम्हारे जीवन में बैठ जाए, एक दीये की तरह जलने लगे भीतर कि जब भी भ्रांति तुम्हें पकड़ने लगे कर्ता की, तत्क्षण छोड़ दो। हंस कर आकाश की तरफ देख लेना और कहना: फिर! फिर वही! मेरे सिर दिया! तू ही सम्हाल।
थोड़े दिन में दीया ठीक से जलने लगेगा। फिर यह कहने की सोचने की भी जरूरत न रह जाएगी। जो कुछ भी होगा, तुम जानोगे, वही कर रहा है; अच्छा हो, बुरा हो। फिर तुम जब बीच में न रहे तो क्या अच्छा और क्या बुरा! जब सभी उसका है तो अच्छा ही होगा। फिर दोनों नदी के किनारे स्वर्ग हैं। फिर दूसरा किनारा नरक नहीं है।
मैं तुमसे कहता हूं, स्वर्ग के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। नरक आदमी की ईजाद है। स्वर्ग अस्तित्व है। नरक आदमी का खयाल है। क्योंकि तुम्हें नरक तो बनाना ही पड़ेगा; दुश्मनों को कहां डालोगे? शत्रुओं को कहां डालोगे? कोई जगह तो चाहिए। और इस नरक के साथ तुमने जिस स्वर्ग की कल्पना की है, वह भी झूठ है। क्योंकि वह असली स्वर्ग नहीं हो सकता। असली स्वर्ग में तो नरक है ही नहीं। बुरा तो है ही नहीं। यही तो धार्मिक व्यक्ति की परम क्रांति की दशा है, जहां उसे बुरा दिखाई ही नहीं पड़ता। भला ही है, क्योंकि सभी पर उसी एक का हस्ताक्षर है। सभी स्वर उसके हैं, तो बुरा हो कैसे सकता है?
अगर तुम्हें बुरा भी दिखाई पड़ता हो तो समझना कि अपनी आंख की ही कोई भूल होगी, अपनी दृष्टि की कोई भूल होगी, अपनी व्याख्या की कोई भूल होगी। लेकिन बुरा हो नहीं सकता।
जिस दिन तुम्हें शुभ ही शुभ दिखाई पड़ने लगे, उस दिन तुम परमात्मा को उपलब्ध हुए। उस दिन तुमने वह भवन खोज लिया जिसका नाम नेति-नेति है–न यह, न वह। द्वंद्व गया। अद्वैत का स्वाद आना शुरू हुआ। और वही एक स्वाद पा लेने जैसा है। और सब स्वाद तुम पाते रहो, वे कोई भी स्वाद तुम्हें तृप्त न कर सकेंगे। परितृप्ति उन स्वादों में नहीं है। उस एक स्वाद को पाकर ही सारी भूख मिट जाती है, सारी स्वाद की आकांक्षा मिट जाती है। उस गहन परितोष की उपलब्धि होती है, जिसका कोई अंत नहीं है।
