20 जनवरी विशेष आजादी के लिए संघर्ष की शंखनाद किया वीर शहीद गेंदसिंह बाऊ

(लोक असर के लिए कृष्णपाल राणा की विशेष रिपोर्ट)

  भारत की 28 वां छत्तीसगढ़ राज्य एक आदिवासी बाहुल्य राज्य हैं। इन आदिवासी बंधुओं ने भारत की स्वतंत्रता संग्राम में प्रारंभ से महत्वपूर्ण योगदान दिया है भारत की स्वतंत्र समर में आहुति देने वालों में यहां के आदिवासी कभी भी पीछे नहीं रहे इस प्रदेश के आदिवासी स्वतंत्र सेनानियों में अमर शहीद गेम सिंह बाऊ का नाम अग्रिम पंक्ति में रखा गया है कृष्णपाल राणा द्वारा लिखित  "हल्बा जनजाति एवं उनके लोक संस्कृति " नामक पुस्तक से साभार जानकारी अनुसार अमर बलिदानी शहीद गैंदसिंह बाऊ जी का जन्म नारायणपुर के बम्हनी गांव में हुआ। गेंदसिंह बचपन से ही चतुर सिंह के समान ताकतवर निडर बालक था वह अपने सहपाठियों में हमेशा मुखिया के रूप में कार्य करते थे । उसका विवाह बम्हनी में देहारी परिवार की लड़की के साथ हुआ। बाम्हनी में कुछ वर्ष रहने के पश्चात उन्होंने कंगाली गढ़ में डेरा जमाया वहां कुछ वर्ष रहने के पश्चात आलरगढ़ में रहने लगे आलरगढ़ उन्हें रास नहीं आया। तब वह पलकोट में आकर बस गए। उनके 5 पुत्र हुए परलकोट  में गेंदसिंह की उदारता साहस न्याय प्रियता, की वजह से उन्हें राजा मानने लगे जब उन्होंने धीरे-धीरे अपने अदम्य साहस चतुर निडरता ताकतवर और नेतृत्व कौशल क्षमता होने के वजह से परलकोट में विशाल किला और महल बनवाया धीरे-धीरे गेंदसिंह का वर्चस्व पूरे परलकोट रियासत में चांदा महाराष्ट्र तक फैल गया। 

गेंद सिंह अपने रियासत परलकोट के सभी लोगों की रक्षा करते थे निर्धन भूखे प्यासे को धन दौलत अनाज आदि देकर उनका सहयोग करते थे ।परलकोट रियासत के जनता राजा को भगवान की तरह पूजते थे इनकी कीर्ति पूरे देश में फैलने लगी इसकी भनक लगते ही अंग्रेजों ने राजा गेंदसिंह की धन दौलत को हड़पने की साजिश रचने लगे।
बस्तर में मराठों और ब्रिटिश अधिकारियों की उपस्थिति से अपनी पहचान का खतरा उत्पन्न हो गया था । ब्रिटिश शासन ने 1795 ईस्वी में जब इनकी अंचल में प्रवेश किया था तभी से यह आशंकित और उदितमान हो उठे थे। परदेसी सभ्यता से खतरा महसूस करने लगे थे परदेसी सभ्यता से खतरा को बचाने के लिए अपने तीर धनुष और भालों को तभी से नुकीला बना रहे थे।
पलकोट विद्रोह जमीदारी की राजधानी पर परलकोट से ही प्रारंभ हुआ था। प्रारंभिक स्थिति में विद्रोही ने कतिपय बंजारों को लूटा था तब उन्हें यह मालूम ना था कि बंजारा के भेष में लूटेरा यहां कदम रख रहे हैं जब इन्हें यह मालूम हुआ कि मराठा सेना इस पर कोई हस्तक्षेप नहीं कर रही है तो और भी अधिक आक्रामक हो गए शीघ्र ही मराठा तथा अंग्रेज अधिकारियों पर घात लगाना प्रारंभ कर दिया।
हर वर्ष की भांति अक्टूबर 1824 में दशहरा पर्व मनाने जब राजा परलकोट से सोनपुर होते हुए जगदलपुर गए थे ।उसी ताक को भांपकर अंग्रेज परलकोट में पहुंच कर षड्यंत्र रचने लगे, और उनके महल में पत्र लिखकर भोले-भाले आदिवासियों को अबूझमाड़यों को यह कहने लगे कि गेंदसिंह मारा गया और उनका महल हमारे कब्जे में है और लूटपाट कत्लेआम कर आम लोगों में दहशत फैलाने लगे जब राजा गेंदसिंह नवंबर 1824 ईस्वी में जगदलपुर से वापस महल में आए तो वहां देखकर हैरान रह गए उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा था तुरंत उन्होंने अपने लोगों की सभा बुलाई और अंग्रेजों की लूटखसोट और शोषण से बचाने के लिए मराठों व अंग्रेजों को सबक सिखाने 24 दिसंबर 18 से 25 ईसवी को विशाल सभा का आयोजन किया । परलकोट के मांझी मुखिया अबूझमाड़ या 24 दिसंबर 18 से 24 को परलकोट में एकत्रित हुए जहां मराठो एवं अंग्रेजों की क्रूरता शोषण को कुचलने की रणनीति बनाई गई इस क्रांति की सूचना धावड़ा वृक्ष की टहनियों वह ढोल नगाड़ा के साथ पूरे परलकोट रियासत में संदेश भेजा गया धारा वृक्ष के पत्ते सूखने से पहले सभी गोटूल में एकत्रित होने लगे क्योंकि गेंदसिंह दूरदर्शी थे उन्हें इस बात की भनक लग चुकी थी कि अंग्रेज की नजर हमारे धन दौलत सोने चांदी पर है उन्होंने तमाम धन दौलत को महल के पश्चिम दिशा में माड़िया मोंगराज मंदिर के पीछे के कुएं में पाठ दिए और उनके सैनिकों के धन दौलत भी कुएं में बंद कर दिए हजारों फलदार वृक्ष काटे गए गेंदसिंह का कहना था कि उनके मरने के बाद उनका धन दौलत अंग्रेजों के हाथ नहीं लगनी चाहिए जनता को आपस में बांट देना।

 गेंदसिंह के सभी सैनिक अपने धनुष बाण और भाला शस्त्र को धार करने लगे गेंदसिंह के जैविक सैनिक मधुमक्खी भी थी । अंग्रेज सेना जैसे ही परलकोट पहुंचने लगे मधुमक्खियां एवं अबूझमाड़िया सिपाहियों के द्वारा वार करते गए अंग्रेज मेजर सीवी इग्नू के होश उड़ गए इग्नू के पहल पर 1 जनवरी 1825 को चांदा से सेना आ गई तो इन विद्रोहियों ने छापामार युद्ध करना प्रारंभ कर दिया विद्रोह के कारण इस अंचल में भूखमरी की स्थिति पैदा हो गई थी विद्रोह का संचालन अलग-अलग टुकड़ों में मांझी लोग करने लगे । रात्रि में सभी विद्रोही गोटूल में एकत्रित होते थे और वही राजा के साथ मिलकर अगले दिन की रणनीति बनाते थे विद्रोही की तीव्रता को देखकर मेजर इग्नू ने 4 जनवरी 1825 को चांदा के पुलिस अधीक्षक कैप्टन पेब को निर्देश दिया कि विद्रोह को तत्काल दबाएं। संगठन क्षमता के धनी गेंदसिंह बहादुर व्यक्ति थे। उनके पास पारंपरिक अस्त्र शस्त्र और अंग्रेजों के पास आधुनिक हथियार बंदूक तोप के सामने टिक नहीं पाए । फलस्वरूप मराठों और अंग्रेजों की सम्मिलित सेना ने 10 जनवरी 1825 को परलकोट को घेर लिया और गेंदसिंह गिरफ्तार कर लिए गए। और उनके साथियों पर जो मुकदमा चला 20 जनवरी 1825 को उनके महल के सामने भूमिया राजा गेंदसिंह बाऊ को फांसी दे दी गई।

गेंद सिंह का बलिदान बस्तर भूमि की व्यक्ति के लिए एक अविस्मरणीय विशाल और अध्याय हैं। प्रत्येक बस्तर वासी का माथा इस तथ्यबोध से गौरवान्वित हो जाता है कि बस्तर जैसे पिछड़े आदिवासी बाहुल्य अंचल में स्वतंत्रता चेतना के प्रथम बीजारोपण के लिए उर्वर भाव भूमि मिली। गेंदसिंह बाऊ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में बस्तर की ही नहीं वरन संपूर्ण छत्तीसगढ़ के प्रथम शहीद है । इस विद्रोह को हम एक तरह से 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का शंखनाद भी कह सकते हैं।


स्वतंत्रता की अलख जगाने दी है जिसने कुर्बानी तेरे लहू के कतरे ने सिचा एक बगिया पुरानीमहक रहा अब तेरा आंगन कह रही तेरी कहानी मातृभूमि की भीषण रण में जो बन गया बलिदानी, पराक्रमी बुद्धिमानी चतुर न्याय प्रिय और स्वाभिमानी परलकोट का वीर सपूत तू था सच्चा हिंदुस्तानी या शहीद तुझे शत शत नमन तुझे शत शत नमन।

20 जनवरी को प्रतिवर्ष अखिल भारतीय आदिवासी हलबा समाज द्वारा हर गांव में, गढ़ में संभाग ब्लॉक राज्य स्तर पर शहादत दिवस के रूप में मना कर शहीद गेंदसिंह बाऊ को श्रद्धांजलि दिया जाता है।

गेंदसिंह बाऊ के नाम से राज्य अलंकरण पुरस्कार का नाम न होना शहीद का अपमान राज्य में प्रथम शहीद गेंदसिंह बाऊ जी के नाम पर राज्य अलंकरण पुरस्कार का नाम राज्य सरकार द्वारा नहीं दिया जा रहा है जो कि छत्तीसगढ़ राज्य के प्रथम शहीद का अपमान है। हल्बा समाज की ओर से विशेष मांग राज्य सरकार से गेंदसिंह बाऊ जी नाम से राज्य अलंकरण पुरस्कार देने प्रयास किया जा रहा है।

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