(संकलन एवं प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द)
सिर्फ सच्चा गुरु ही आपको आपकी आत्यंतिक संभावना के लिए निर्देश दे सकता है… उनके परित्याग में भी। यह समझ उत्सव और परिपक्वता का कारण बनती है।
एक चीनी साधु के बारे में एक कहानी है जो उत्सव मना रहा था। किसी ने उससे पूछा : ‘तुम क्यों उत्सव मना रहे हो? क्या हुआ ?’
उसने कहा कि ‘आज मेरे सदगुरु का जन्म-दिन है।’
सदगुरु देह त्याग चुका था, लेकिन प्रश्नकर्ता चितिंत था। वह बोला, ‘लेकिन जहां तक मुझे याद है, आप कई बार गुरु के पास गए और उन्होंने हमेशा आपका गुरु बनने से इनकार कर दिया- फिर आप क्यों उत्सव मना रहे हैं? क्योंकि यह रस्म तो वे ही करते हैं जो गुरु द्वारा शिष्य की तरह स्वीकार कर लिए जाते हैं। आप क्यों फिकर ले रहे हैं? सच तो यह है कि उन्होंने आपका कई बार तिरस्कार किया था !’
वह साधु हंसने लगा। वह बोला, ‘चूंकि उन्होंने मेरा तिरस्कार किया, मैं स्वयं के पास आ गया। और जिस दिन मैंने अपने होने को अनुभव किया, मैं उनके प्रति अनुगृहीत हुआ। वह मेरे सदगुरु हैं। यदि उन्होंने मेरा तिरस्कार नहीं किया होता तो हो सकता है कि मैं पहुंच नहीं पाता- क्योंकि मैं किसी मदद की तलाश कर रहा था, किसी पर आश्रित होना चाहता था। पूरी तर से वैयक्तिक और स्वतंत्र होने में मेरा कोई रस नहीं था।
‘मैं मुक्ति की बात करता था, लेकिन मैं मुक्ति का प्रयास नहीं कर रहा था। मैं सुंदर पिंजड़ा खोज रहा था, सुंदर कैदखाना- कोई पवित्र कैदखाना, कोई धार्मिक ढांचा। लेकिन यह आदमी गजब का था ! कितनी बार मैं उनके पास गया- लेकिन वह मुझे बाहर फेंक देते।
वह कहते, ‘घर जाओ! मैं तुम्हारा गुरु नहीं हूं।’ और अब मैं जानता हूं कि वे मेरे सदगुरु थे और यह उनकी सीख थी।
उनका तिरस्कार ही उनका स्वीकार था, क्योंकि वे एक नजर में देख सकते थे कि मेरा विकास ऐसे ही होगा। इसीलिए उन्होंने मेरा तिरस्कार किया। लेकिन तिरस्कार करके उन्होंने मुझे स्वीकारा।’