क्या खिड़की से देखना आकाश को, जब पूरा आकाश मिलने को संभव है…

(संकलन एवं प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द )

रामकृष्ण मरते थे। उन्हें गले का कैंसर हुआ था। डाक्टर ने कह दिया कि अब आखिरी घड़ी आ गई। तो शारदा उनकी पत्नी रोने लगी। रामकृष्ण ने कहाः रुक, रो मत। क्योंकि जो मरेगा वह तो मरा ही हुआ था, और जो जिंदा था वह कभी नहीं मरेगा। और ध्यान रख, चूड़ियां मत तोड़ना।

शारदा अकेली स्त्री है पूरे भारत के इतिहास में, पति के मरने पर जिसने चूड़ियां नहीं तोड़ीं। क्योंकि रामकृष्ण ने कहाः चूड़ियां मत तोड़ना। तूने मुझे चाहा था कि इस देह को ? तूने किसको प्रेम किया था? मुझे या इस देह को ? अगर इस देह को किया था तो तेरी मर्जी, फिर तू चूड़ियां तोड़ लेना। और अगर मुझे प्रेम किया था तो मैं नहीं मर रहा हूं। मैं रहूंगा। मैं उपलब्ध रहूंगा। और शारदा ने चूड़ियां नहीं तोड़ीं।

शारदा की आंख से आंसू की एक बूंद नहीं गिरी। लोग तो समझे कि उसे इतना भारी धक्का लगा है कि वह विक्षिप्त हो गई है। लोगों को तो उसकी बात विक्षिप्तता ही जैसी लगी।

लेकिन उसने सब काम वैसे ही जारी रखा जैसे रामकृष्ण जिंदा हो। रोज सुबह वह उन्हें बिस्तर से आकर उठाती कि अब उठो परमहंसदेव, भक्त आ गए हैं- जैसा रोज उठाती थी, भक्त आ जाते थे, और उनको उठाती थी आकर । मसहरी खोल कर खड़ी हो जाती- जैसे सदा खड़ी होती थी। ठीक जब वे भोजन करते थे तब वह थाली लगा कर आ जाती थी, बाहर आकर भक्तों के बीच कहती कि अब चलो, परमहंसदेव ! लोग हंसते, और लोग रोते भी कि बेचारी ! इसका दिमाग खराब हो गया! किसको कहती है? थाली लगा कर बैठती, पंखा झलती। वहां कोई भी न था।

अगर प्रेम की आंख न हो तो वहां कोई भी न था, और अगर प्रेम की आंख हो तो वहां सब था। प्रेमी इसीलिए तो पागल दिखाई पड़ता है, क्योंकि उसे कुछ ऐसी चीजें दिखाई पड़ने लगती हैं जो अप्रेमी को दिखाई नहीं पड़तीं। और प्रेमी अंधा मालूम पड़ता है, बड़े मजे की बात है। प्रेमी के पास ही आंख होती है, लेकिन प्रेमी आंख वालों को अंधा दिखाई पड़ता है।

क्योंकि उसे कुछ चीजें दिखाई पड़ती हैं जो तुम्हें दिखाई नहीं पड़तीं। तुम्हें लगता है, पागल है, अंधा है।

शारदा सधवा ही रही। प्रेम की एक बड़ी ऊंची मंजिल उसने पाई। रामकृष्ण उसके लिए कभी नहीं मरे। प्रेम मृत्यु को जानता ही नहीं। लेकिन प्रेम की मृत्यु में जो मरा हो पहले, वही फिर प्रेम के अमृत को जान पाता है। प्रेम स्वयं मृत्यु है, इसलिए फिर किसी और मृत्यु को प्रेम क्या जानेगा !

नहीं, समय का और स्थान का कोई अंतर नहीं है। प्रेम सब फासले मिटा देता है। एक ही फासला है, और वह अप्रेम का है। एक ही दूरी है, वह अप्रेम की है। जब तक तुम्हारे जीवन में अप्रेम है तब तक तुम सभी से दूर हो। जिस दिन तुम्हारे जीवन में प्रेम जागेगा, प्रेम का झरना फूटेगा, तुम सभी के पास हो जाओगे। और तुमने एक के साथ भी अगर प्रेम का नाता जोड़ लिया, तो तुम पाओगे कि तुम्हें प्रेम का स्वाद मिल गया। फिर एक से क्या जोड़ना ! फिर सभी से जोड़ लेना। फिर सर्व से जोड़ा जा सकता है। प्रेम तो पाठ है प्रार्थना का।

सितारों के आगे जहां और भी हैं

अभी इश्क के इम्तिहां और भी हैं

प्रेम तो पाठ है प्रार्थना का। वह तो बारहखड़ी है। फिर बड़े इम्तिहान हैं। आखिरी इम्तिहान तो वही है जहां इस सारे अस्तित्व के प्रति तुम्हारा प्रेम हो जाता है, सर्व तुम्हारा प्रेमी हो जाता है।

किसी एक को प्रेम करना ऐसे ही है जैसे खिड़की से संसार के सौंदर्य को झांकना। फिर खिड़की से जिसने झांक कर देख लिया, वह खिड़की पर ही क्यों रुकेगा; फिर बाहर का निमंत्रण मिल गया, फिर चांद-तारे बुला रहे हैं; फिर वह बाहर आ जाता है खुले आकाश के नीचे। प्रेम का पाठ सीखा, खिड़की के पास से। इसलिए खिड़की के प्रति सदा ही कृतज्ञता का बोध रहेगा, भाव रहेगा।

गुरु के पास परमात्मा का पाठ सीखा जाता है। प्रेमी के पास प्रेम का पाठ सीखा जाता है। अनुग्रह रहेगा उसका, सदा-सदा के लिए। लेकिन जल्दी ही उससे पार होना है, और विराट चारों तरफ घिरा हुआ है। क्या खिड़की से देखना आकाश को, जब पूरा आकाश मिलने को संभव है, उपलब्ध है!

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