(लोक असर के लिए जगदलपुर से विशेष लेख डॉ रूपेन्द्र कवि, मानववैज्ञानिक व साहित्यकार)
हर साल आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को भगवान जगन्नाथ की भव्य रथ यात्रा का आयोजन किया जाता है. ओडिशा के पुरी के तर्ज़ में होने वाली इस अद्वितीय धार्मिक यात्रा को देखने के लिए श्रद्धालु दूर-दूर से आते हैं. यह उत्सव दस दिनों तक बड़े उत्साह और धूमधाम से मनाया जाता है. इस दौरान, जगदलपुर-बस्तर में भगवान जगन्नाथ, उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के रथों को भव्य जुलूस के साथ खींचा जाता है, जिसे भक्तगण अपनी श्रद्धा और भक्ति से भरपूर मानते हैं. मध्य शहर में जगन्नाथ जी की रथ यात्रा निकाली जाती है, जो श्रद्धालुओं को अद्वितीय आध्यात्मिक अनुभव प्रदान करती है. इस साल, रथ यात्रा की तिथि जानने के लिए श्रद्धालुओं की उत्सुकता बढ़ गई है. यह यात्रा न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण मानी जाती है. रथ यात्रा के दौरान शहर में मेले का माहौल होता है, जिसमें संगीत, नृत्य और विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है, जो इस उत्सव को और भी विशेष बनाते हैं.
कब निकाली जाएगी भगवान जगन्नाथ की भव्य रथ यात्रा-
आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि 7 जुलाई को इस साल रथ यात्रा का आयोजन किया जाएगा. जगन्नाथ रथ यात्रा 7 जुलाई को तीनो रथ चरणबद्ध ढंग से निकाली जाएगी. श्रद्धालु इन समयों पर भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी सुभद्रा के दर्शन कर सकेंगे.
रथ यात्रा का महत्व और उद्देश्य-
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, रथ यात्रा के समय भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी सुभद्रा रथ में बैठकर गुंडिचा मंदिर की ओर प्रस्थान करते हैं. यह माना जाता है कि गुंडिचा मंदिर भगवान जगन्नाथ की मौसी का घर है, जहां तीनों भाई-बहन सात दिनों तक विश्राम करते हैं. इसके बाद, आषाढ़ शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी सुभद्रा को पुनः जगन्नाथ मंदिर में स्थापित किया जाता है. पुरी के जगन्नाथ मंदिर में भगवान जगन्नाथ अपने बड़े भाई बलभद्र (बलराम) और बहन सुभद्रा के साथ विराजते हैं. रथ यात्रा के दौरान इन तीनों की प्रतिमाओं को रथ में बैठाकर पूरे नगर में घुमाया जाता है. ऐसी मान्यता है कि भगवान जगन्नाथ के रथ को खींचने से व्यक्ति को सौ यज्ञ करने के बराबर पुण्य मिलता है. यह धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजन न केवल भक्ति और श्रद्धा का प्रतीक है, बल्कि समाज में एकता और समरसता को भी बढ़ावा देता है.
जगन्नाथ मंदिर के बारे में जानकारी~
जगन्नाथ मंदिर जगदलपुर शहर के बिचो बीच स्थापित है। मंदिर में प्रतिदिन “अमनीया” (महाप्रसाद का भोग) का वितरण किया जाता है। “जगन्नाथ के भात को जगत पसारे हाथ” को उजागरकरता यह सार्वजनिक भोग विशेषता जगन्नाथ मंदिर को अद्वितीय और पूजनीय बनाते हैं.
“तूपकी” से सलामी की विशिष्ट परंपरा-
बस्तर में भगवन जगन्नाथ के प्रति लोगों की आस्था देश के अन्य हिस्सों की तरह नहीं है। आस्था और भक्ति के प्रतीक के इस पर्व में “तुपकी “का अपना विशेष स्थान है। पिछले लगभग 610 सालों से तुपकी से सलामी देने की परंपरा आज भी कायम है। इस साल मनाए जाने वाले गोंचा महापर्व में भी यह रस्म पूरे विधि- विधान से की जाएगी।
बस्तर गोंचा अपने इसी अनूठेपन के कारण ही विश्वविख्यात है। 360 घर आरण्यक ब्राह्मण समाज कहता है कि पूरे भारत में केवल बस्तर में ही भगवान को तुपकी से सलामी दी जाती है। तुपकी के बगैर पर्व का वर्णन अधूरा ही रहता है । इस पर्व पर बस्तर में आदिवासी एक प्रकार की बांस की बंदूक का प्रयोग राजा एवं भगवान के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए सलामी देने के रूप में करते हैं। इस बांस की बंदूक को स्थानीय आदिवासी बोली में तुपकी कहते हैं। तुपकी दरअसल एयरगन जैसा बांस की पोली नली से बना उपकरण है। लगभग आधे इंच व्यास की पोंगली में मटर के दाने के बराबर आकार का वनों में पैदा होने वाला हरा फल पेंग भरकर, एक कमची से पिचकारी चलाने की मुद्रा में निशाना साधा जाता है। जिसमें जोरों की आवाज होती है और पेंग दूर तक मार करता है।
परंपरा निर्वहन के तहत अनूठी “तुपकी “ने बनाया बस्तर गोंचा को विश्वविख्यात क्योंकि भगवान जगन्नाथ को तुपकी से सलामी दिया जाता है। लेकिन इस तुपकी को बनाने की कारीगरी जिला के कुछ गांव के लोगों को ही मालूम हैं। सालों से चली इस परंपरा को लेकर इस समय तुपकी बनाने का काम नानगुर ,बिल्लौरी, पोड़ागुड़ा, तिरिया ,कलचा, माचकोट के ग्रामीणों के द्वारा किया जा रहा है। इस काम को धुरवा और भतरा जाति के पुरूषों के द्वारा किया जाता है जबकि पेंगू को बटोरने और तोड़ने की जिम्मेदारी प्रायः महिलाओं के द्वारा पूरी की जाती है।
360 घर आरण्यक ब्राह्मण समाज की भूमिका-
जगदलपुर -बस्तर में रियासत काल से ही “गोंचा पर्व” (रथ यात्रा) को जगन्नाथ पुरी की तर्ज़ में मनाने का दायित्व 360घर आरण्यक ब्राह्मण समाज के पास है। प्रारंभ से अंत तक समाज द्वारा एक गोंचा निर्वहन हेतु उपसमिति बनाकर सभी रश्मों को पारंपरिक तरीक़े से करने की महती भूमिका होती है।
प्रसाद–
बस्तर में “ग़ज़ामूँग” (अंकुरित मूँग ) का प्रसाद भोग लगता है। साथ ही “ फ़नस खोसा”(पके कटहल का फल) रथ संचालन व गुण्डिचा मंदिर (सिरहासार) में भी दसों दिन वितरित किया जाता है।