कभी सोचा आपने, यह ‘मैं’ है क्या? क्या है आपका ‘मैं’? समझिए सम्राट मिलिंद और भिक्षु नागसेन से…

(संकलन एवं प्रस्तुति मक्सिम आनंद)

कभी सोचा आपने, यह ‘मैं’ है क्या? आपका हाथ है ‘मैं’, आपका पैर है, आपका मस्तिष्क है आपका हृदय है? क्या है आपका ‘मैं’?

अगर आप एक क्षण भी शांत होकर भीतर खोजने जाएंगे कि कहां है ‘मैं’, कौन-सी चीज हैं ‘मैं’, तो आप एकदम हैरान रह जाएंगे कि भीतर कोई ‘मैं’ खोजे से मिलने को नहीं है। जितना गहरा खोजेंगे, उतना ही पाएंगे भीतर एक सन्नाटा और शून्य है, वहां कोई ‘आई’ नहीं, वहां कोई ‘मैं’ नहीं, वहां कोई ‘इगो’ नहीं।

एक भिक्षु नागसेन को एक सम्राट् मिलिंद ने निमंत्रण दिया था कि तुम आओ दरबार में। तो जो राजदूत गया था निमंत्रण देने, उसने नागसेन को कहा कि भिक्षु नागसेन, आपको बुलाया है सम्राट् मिलिंद ने। मैं निमंत्रण देने आया हूं।
तो नागसेन कहने लगा, मैं चलूंगा जरूर; लेकिन एक बात विनय कर दूं, पहले ही कह दूं कि भिक्षु नागसेन जैसा कोई है नहीं। यह केवल एक नाम है, कामचलाऊ नाम है। आप कहते हैं तो मैं चलूंगा जरूर, लेकिन ऐसा कोई आदमी कहीं है नहीं।

राजदूत ने जाकर सम्राट् को कह दिया कि बड़ा अजीब आदमी है वह। वह कहने लगा कि मैं चलूंगा जरूर, लेकिन ध्यान रहे कि भिक्षु नागसेन जैसा कहीं कोई है नहीं, यह केवल एक कामचलाऊ नाम है।
सम्राट् ने कहा, अजीब-सी बात है, जब वह कहता है, मैं चलूंगा। आएगा वह ! वह आया भी रथ पर बैठकर ! सम्राट् ने द्वार पर स्वागत किया और कहा, भिक्षु नागसेन हम स्वागत करते हैं आपका।

वह हंसने लगा। उसने कहा, स्वागत स्वीकार करता हूं। लेकिन स्मरण रहे भिक्षु नागसेन जैसा कोई है नहीं।
सम्राट् कहने लगा, बड़ी पहेली की बातें करते हैं आप। अगर आप नहीं हैं तो कौन हैं, कौन आया है यहां, कौन स्वीकार कर रहा है स्वागत, कौन दे रहा है उत्तर ?

नागसेन मुड़ा और उसने कहा, देखते हैं, सम्राट् मिलिंद, यह रथ खड़ा है जिस पर मैं आया।
सम्राट् ने कहा, हां, रथ है। तो भिक्षु नागसेन पूछने लगा, घोड़े को निकालकर अलग कर लिया जाए। घोड़े अलग कर लिए गए। और उसने पूछा सम्राट् से, ये घोड़े रथ हैं?

सम्राट् ने कहा, घोड़े कैसे रथ हो सकते हैं? घोड़े अलग कर दिए गए। सामने के डंडे जिनसे घोड़े बंधे थे, खिंचवा लिए गए।

उसने पूछा कि ये रथ हैं?

सिर्प दो डंडे कैसे रथ हो सकते हैं? डंडे अलग कर दिए गए। चाक निकलवा लिए।
और कहा, ये रथ हैं?

सम्राट् ने कहा, ये चाक हैं, ये रथ नहीं हैं।

और एक-एक अंग रथ से निकलता चला गया। और एक-एक अंग पर सम्राट् को कहना पड़ा कि नहीं, ये रथ नहीं हैं। फिर आखिर पीछे शून्य बच गया, वहां कुछ भी न बचा।

भिक्षु नागसेन पूछने लगा, रथ कहां है अब ? रथ कहां है अब ! और जितनी चीजें मैंने निकालीं, तुमने कहा ये भी रथ नहीं! ये भी रथ नहीं, ये भी रथ नहीं? अब रथ कहां है?

तो सम्राट् चौंककर खड़ा रह गया – रथ पीछे बचा भी नहीं था और जो चीजें निकल गई थीं, उनमें कोई रथ था भी नहीं। तो वह भिक्षु कहने लगा, समझे आप? रथ एक जोड़ था। रथ कुछ चीजों का संग्रह मात्र था। रथ का अपना होना नहीं है, कोई ‘इगो’ नहीं है। रथ एक जोड़ है।

आप खोजें – कहां है आपका ‘मैं’ और आप पाएंगे कि अनंत शक्तियों के एक जोड़ हैं; ‘मैं’ कहीं भी नहीं है। और एक-एक अंग आप सोचते चले जाएं तो एक-एक अंग समाप्त होता चला जाता है, फिर पीछे शून्य रह जाता है। उसी शून्य से प्रेम का जन्म होता है, क्योंकि वह शून्य आप नहीं हैं, वह शून्य परमात्मा है।

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