(संकलन एवं प्रस्तुति मक्सिम आनंद)
कबीर के जीवन में ऐसा उल्लेख है, कि वे रोज़ उनके घर भजन करने लोग इकट्ठे होते थे। कबीर तो सहज समाधि में थे, बालवत थे। जब लोग इकट्ठे हो जाते और भोजन का समय होता तो वे उनसे कहतेः ‘चलो भोजन करके जाना ! अब कहां जाते हो, भोजन कर जाओ!’ पति तो ऐसा कहे, लेकिन पत्नी बड़ी मुश्किल में पड़ गई। अब यह कहां से रोज-रोज भोजन लाओ ! इतना भोजन! कबीर तो गरीब आदमी थे, कपड़ा बुन कर बेच लेते थे जो थोड़ा-बहुत, वह भी जो भजन इत्यादि से समय बच जाता कभी तो बुन लेते – उसी में काम चलाना था।
तो पत्नी ने कहा कि मैं तो न कह सकूंगी, क्योंकि मैं कैसे कहूं कि घर में कुछ भी नहीं है, मैं कैसे खिलाऊं, कहां से लाऊं! उधारी बढ़ती जाती है। बेटे को कहा- कमाल को – कि तू अपने बाप को समझा कि अब यह कहना बंद कर दो, हमारे पास सुविधा नहीं है। लोग भजन करें, जायें, तो जाने दो, उनको रोको मत। हाथ पकड़ पकड़ कर रोकते हो कि बैठो, भोजन करके जाना, कहां जाते हो! लोग जाना भी चाहते हैं, क्योंकि लोगों को पता है कि घर में भोजन की सुविधा नहीं है।
तो कमाल ने कबीर से कहा, एक दफा कहा, दो दफा कहा, तीन दफा कहा, चौथी दफा कमाल नाराज हो गया। कमाल भी कमाल का ही बेटा था।
उसने कहाः अब बंद करते हो कि नहीं? क्या हम चोरी करने लगें? उधारी चढ़ गई सिर पर, चुकती नहीं। अब तो एक ही उपाय बचा है। अगर तुमने यह जारी रखा तो हम चोरी करने लगेंगे। कबीर तो खिल गये जैसे कमल खिल जाये।
कबीर ने कहा: अरे पागल तो पहले क्यों न सोचा। इतने दिन खुद परेशान, तू परेशान, तेरी मां परेशान ! और इतने दिन मुझे भी परेशान कर रहे हो! तो पहले क्यों न सोचा ?
कमाल तो चौंका। उसने कहा हद हो गई। इसका क्या अर्थ हुआ। क्या चोरी के लिए भी स्वीकृति ! लेकिन कमाल भी कमाल था।
उसने कहा : ‘तो ठीक। तो आज चोरी करने जायेंगे। लेकिन आपको मेरे साथ चलना पड़ेगा।’ उसने सोचा कि यह मजाक ही होगी; जब बात मुद्दे की आयेगी और चोरी करने की बात उठेगी तो शायद इनकार कर जायेंगे।
लेकिन कबीर ने कहा: ‘हां-हां, चलूंगा।’
कमाल भी कमाल ही था। रात आ गया उठ कर आधी रात, कहा कि चलो। अभी भी सोचता था कि आखिरी वक्त में वे नट जायेंगे कि चोरी और कबीर! बात कुछ मेल खाती नहीं। लेकिन कबीर उठ गये, हाथ मुंह धो कर चल पड़े। कहने लगेः ‘कहां चलना है, चल।’ मगर कमाल भी कमाल ही था। उसने जाकर सेंध लगा दी एक मकान में। उसने कहा, हो सकता है अब रुक जायें। वह भी आखिरी दम तक देखना चाहता था कि मामला कहां तक जाता है। सेंध भी खुद गई।
उसने कहाः ‘तो मैं अंदर चला जाऊं?’ कबीर ने कहा: ‘अब इधर आये किसलिए! तो पागल, आधी रात नींद वैसे ही खराब की ! जल्दी कर, क्योंकि ब्रह्म-मुहूर्त हुआ जाता है और थोड़ी देर में भजन करने वाले लोग आते होंगे!’
तो बड़ी अनूठी कहानी है। अनूठी, क्योंकि उसके फिर मुकाबले में कोई कहानी पूरे संत-साहित्य में नहीं है। तो कमाल भीतर चला गया। कमाल भी कमाल ही था। उसने कहा कि ठीक है; शायद जब में ले आऊंगा धन तब वे इनकार कर देंगे। वह भी आखिरी दम तक देख लेना चाहता था। बाप का ही बेटा था। कबीर का ही बेटा था। कहा कि तुम अगर आखिरी दम तक कस रहे हो तो देख लेना चाहता था बाप, तो अशर्फियों से भरी एक बोरी। बोरी बाहर निकाल रहा था, तभी कबीर ने कहा कि ‘सुन, घर के लोगों बता दिया कि नहीं, बता दिया कि नहीं?’
तो उसने कहाः ‘क्या मतलब?’ कहा :’घर के लोगों को बता तो दे भाई कम से कम । सुबह भटकेंगे, यहां-वहां खोजेंगे, उनको पता तो होना चाहिए, कौन ले गया ! शोरगुल कर दे !’ तो कमाल तो कमाल ही था, उसने शोरगुल कर दिया। और जब कबीर कह रहे हैं तो कर दो शोरगुल! शोरगुल कर दिया तो पकड़ लिया गया। सेंध में से निकल रहा था, घर के लोगों ने पीछे से पैर पकड़ लिए। तो उसने पूछा कबीर सेः ‘अब क्या करना? लोगों ने पैर पकड़ लिए हैं।’ तो कबीर ने कहा: ‘पकड़े रहने दे पैर। पैर का करना भी क्या है! सिर मैं तेरा लिए जाता हूं।’ कहते हैं सिर काट लिया, सिर ले गये। घर के लोगों ने पीछे खींच लिया कमाल को। बिना सिर का था तो पहचानना मुश्किल हो गया कि कौन है, क्या है। लेकिन कुछ रंग-ढंग से लगता था कि अपूर्व व्यक्ति है! गंध कुछ ऐसी थी, हाथ-पैर का सौंदर्य ऐसा था, शरीर का अनुपात ऐसा था, कोमलता ऐसी थी, प्रसाद ऐसा था । बिना सिर के भी था तो भी !
किसी ने कहा कि हमें तो ऐसा लगता है कि कबीर का बेटा कमाल है, तो इसे बाहर खंभे पर लटका दें, पहचान हो जायेगी। क्योंकि थोड़ी ही देर में कबीर की मंडली निकलेगी भजन करते, कोई न कोई पहचान लेगा। तो उन्होंने खंभे पर लटका दिया बाहर। थोड़ी देर बाद मंडली निकली कबीर की भजन करते। पकड़े गये, क्योंकि कमाल का शरीर वहां लटका था। रोज की आदत, पुरानी आदत, ऐसी जल्दी तो छूटती नहीं – जब लोगों को भजन करते देखा तो वह ताली बजाने लगा ! वह जो लाश लटकी थी, वह ताली बजाने लगी।
कहानी तो कहानी ही है; सच होनी चाहिए, ऐसा नहीं है। लेकिन बड़ी प्रतीकात्मक है कि कबीर चोरी को भी राजी हो गये; बेटे का सिर काटने को भी राजी हो गये; न चोरी से डरे न हिंसा से डरे। ऐसा हुआ है, ऐसा मैं कह नहीं रहा; लेकिन ऐसा भी हो तो भी आश्चर्य नहीं है। क्योंकि हमारे जो द्वंद्व हैं- चोरी बुरी और अचोरी अच्छी, और हिंसा बुरी और अहिंसा अच्छी – ये हमारे चंचल चित्त की लहरों से उठी हुई धारणायें हैं। हेयोपादेय! यह अच्छा, यह बुरा, यह शुभ, यह अशुभ ! कहीं तो कोई एक दशा होगी, न जहां कुछ शुभ रह जाता, न अशुभ। कहीं तो कोई एक दशा होगी निद्वंद्व ! कहीं तो एक सरलपन होगा, जहां भेद नहीं रह जाता ! कहीं तो कोई एक स्थान होना चाहिए, एक स्थिति होनी चाहिए – जहां सब द्वंद्व खो जाते हैं, द्वैत लीन हो जाता है, अद्वैत का जन्म होता है! उसी अद्वैत की बात है।