(संकलन एवं प्रस्तुति मक्सिम आनंद)
वेदों में होमापक्षी की कथा है। यह चिड़िया आकाश में बहुत ऊंचे पर रहती है। वहीं पर अंडे देती है। अंडा देते ही वह गिरने लगता है। परंतु इतने ऊंचे से गिरता है कि गिरते-गिरते बीच में ही फट जाता है। तब बच्चा गिरने लगता है। गिरते-गिरते ही उसकी आंखें खुलती हैं और पंख निकल आते हैं। आंखें खुलने से जब वह बच्चा देखता है कि मैं गिर रहा हूं और जमीन पर गिर कर चूर-चूर हो जाऊंगा, तब वह एकदम अपनी मां की ओर फिर ऊंचे चढ़ जाता है।
यह कथा किसी पक्षी की कथा नहीं, मनुष्य की कथा है। मनुष्य के पतन, मनुष्य के बोध की कथा है। ऐसा ही मनुष्य है। आकाश में हमारा घर है, ऊंचाइयों पर हमारा घर है, लेकिन जन्म के साथ ही हम गिरना शुरू हो जाते हैं। गिरने का कोई अंत नहीं है। क्योंकि खाई अतल है। कोई तल नहीं है खाई का। हम गिरते जा सकते हैं और गिरते जा सकते हैं। ऐसी कोई सीमा नहीं है जहां अनुभव में आए कि बस इसके आगे गिरना और नहीं हो सकता। और भी हो सकता है, और भी हो सकता है।
अंतिम पापी कभी हुआ नहीं। कभी होगा नहीं। क्योंकि पाप में और परिष्कार हो सकते हैं। पाप में और नई ईजाद हो सकती है। पाप में और नई कलाएं जोड़ी जा सकती हैं।
गिरने का कोई अंत नहीं है। गिरते ही गिरते किसी दिन आंख खुलती है। गिरने की चोट से ही आंख खुलती है। गिरने की पीड़ा से ही आंख खुलती है। और उसी आंख के खुलने में मनुष्य को अपने घर की याद आनी शुरू होती है। उस आंख का खुलना है- दर्शन, दृष्टि। नहीं तो हम अंधे हैं। ये बाहर की आंखें खुली हैं इससे यह मत सोच लेना कि तुम्हारे पास आंखें हैं। अगर तुम्हारे पास आंखें हैं तो फिर बुद्ध के पास क्या था? तुम्हारे पास आंखें हैं तो फिर महावीर के पास क्या था? तुम्हारे पास आंखें हैं तो फिर जिनको हमने द्रष्टा कहा है, उनके पास क्या था? नहीं , तुम्हारे पास आंख नहीं है। तुम्हारे पास सिर्फ आंख की भ्रांति है।
हमारी आंखें वैसी ही हैं जैसे तुमने मोर के पंख पर बनी आंखें देखी हों। उनसे दिखाई कुछ नहीं पड़ता, आंखें भर हैं। हमारी आंखें मोरपंखी हैं। चित्रित हैं। दिखता कुछ नहीं है, सूझता कुछ नहीं है, बुझता कुछ नहीं है। टटोल-टटोल कर गिरते-उठते हम चलते रहते हैं।
आंख तो तब है जब तुम्हें अपने घर की याद आ जाए। आंख तो तब है जब तुम्हें ऊंचाई का स्मरण आ जाए। तुम कहां से आए हो, किस स्रोत से आए हो, जब उसकी प्रतीति सघन हो जाए, तब समझना कि आंख खुली। और उसी क्षण क्रांति शुरू हो जाती है। उसी क्षण अनुलोम समाप्त हुआ, विलोम प्रारंभ हुआ। उसी क्षण अदम क्राइस्ट बन जाता है। उसी क्षण हम परमात्मा से दूर जाने के बजाय उसके पास आने शुरू हो जाते हैं। और पंख हमारे पास हैं, आंख हमारे पास नहीं है। आंख हो तो हम पंखों का सम्यक उपयोग कर लें। शक्ति हमारे पास है, दृष्टि हमारे पास नहीं है। इसलिए हमारी शक्ति आत्मघाती हो जाती है।