(संकलन एवं प्रस्तुति मक्सिम आनंद)
खलील जिब्रान की प्रसिद्ध कहानी है कि एक मछली बेचने वाली औरत गांव से शहर मछली बेचने आई। मछलियां बेच कर जब लौटती थी तो अचानक बाजार में उसे बचपन की एक सहेली मिल गई। वह सहेली अब मालिन हो गई थी। उस मालिन ने कहा, आज रात मेरे घर रुको! कल सुबह होते ही चले जाना। कितने वर्षों बाद मिले, कितनी-कितनी बातें करने को हैं!
मछली बेचने वाली औरत मालिन के घर रुकी। मालिन का घर बगिया से घिरा हुआ। फिर पुरानी सहेली की सेवा मालिन ने खूब दिल भर कर की। और जब सोने का समय आया और मालिन सोई, तो इसके पहले कि वह सोती, बगिया में गई, चांद निकला था, बेले के फूल खिले थे, उसने बेलों की झोली भर ली और बेलों का ढेर अपनी सहेली उस मछली बेचने वाली औरत के पास आकर लगा दिया, कि रात भर बेलों की सुगंध! लेकिन थोड़ी देर बाद मालिन परेशान हुई, क्योंकि मछली बेचने वाली औरत सो ही नहीं रही, करवट बदलती है बार-बार। पूछा कि क्या नींद नहीं आ रही है?
उसने कहा, क्षमा करो, ये फूल यहां से हटा दो। और मेरी टोकरी, जिसमें मैं मछलियां लाई थी, उस पर जरा पानी छिड़क कर मेरे पास रख दो।
मालिन ने कहा, तू पागल हो गई है?
उसने कहा, मैं पागल नहीं हो गई। मैं तो एक ही सुगंध जानती हूं: मछलियों की। और बाकी सब दुर्गंध है।
भीड़ मछलियों की गंध को जानती है। उससे परिचित है। शास्त्रों के पिटे-पिटाए शब्द दोहराए जाएं तो भीड़ उनसे राजी होती है, क्योंकि बाप-दादों से वही सुने हैं, पीढ़ी-दर-पीढ़ी वही सुने हैं। सुनते-सुनते उनके कान भी पक गए हैं। वे ठीक लगते हैं।
मैं उनसे वह कह रहा हूं जो मेरी प्रतीति है, मेरा अनुभव है। और मजा यह है कि मैं उनसे वह कह रहा हूं जो कि शास्त्रों की अंतर्निहित आत्मा है। मगर शास्त्रों के शब्द मैं उपयोग नहीं कर रहा हूं। शब्द तो पुराने पड़ गए। शब्द तो बदल दिए जाने चाहिए। अब तो हमें नये शब्द खोजने होंगे। हर सदी को अपने शब्द खोजने होते हैं। हर सदी को अपने धर्म के लिए पुनः-पुनः अवतार देना होता है। हर सदी को अपनी अभिव्यक्ति खोजनी होती है।
तो मैं वही कह रहा हूं जो बुद्ध ने कहा, कृष्ण ने कहा, मोहम्मद ने कहा, जीसस ने कहा; लेकिन अपने ढंग से कह रहा हूं। मैं बीसवीं सदी का आदमी हूं। मैं चाहूं भी तो कृष्ण की भाषा नहीं बोल सकता। कृष्ण की भाषा अब किसी अर्थ की भी नहीं है। सार्थक थी उस दिन जिस दिन अर्जुन से कृष्ण बोले थे। आज न तो अर्जुन है, न कुरुक्षेत्र है, न महाभारत हो रहा है। आज कृष्ण की गीता पर अगर कुछ कहना भी हो तो बीसवीं सदी की भाषा में कहना होगा। और तुम्हारी आदत शब्दों को पकड़ने की है, आत्मा को पहचानने की नहीं।
तो भीड़ मेरे नये शब्दों से परेशान है, मेरी नई दृष्टि से परेशान है। जो समझ सकते हैं, वे तो तत्क्षण पहचान लेते हैं कि मैं वही कह रहा हूं जो सदा कहा गया है। भाषा भिन्न है, भाव भिन्न नहीं है। अभिव्यंजना भिन्न है। शायद मेरा वाद्य भिन्न है, मगर जो गीत मैं गा रहा हूं वह शाश्वत का गीत है, सनातन गीत है। उसके अतिरिक्त कोई गीत ही नहीं है। मैं तो हूं भी नहीं, परमात्मा जो गा रहा है उसे ही बिना बाधा डाले तुम तक पहुंच जाने दे रहा हूं। मगर भीड़ की अपनी आदतें हैं।
जो कारागृहों में रहने के आदी हो गए हैं, उन्हें मुक्त करना आसान नहीं। जो अंधविश्वासों में जीने के आदी हो गए हैं, उनको उनके बाहर लाना आसान नहीं। जिन्होंने कुछ पक्षपात निर्मित कर लिए हैं, पक्षपात ही जिनके प्राण बन गए हैं, उनसे उनके पक्षपात छीनना आसान नहीं। मेरे हाथ लहूलुहान होंगे।