(संकलन एवं प्रस्तुति मक्सिम आनंद)
रवींद्रनाथ ने लिखा है एक बौद्ध भिक्षु एक गांव से निकल रहा है, संन्यासी। एक वेश्या उस पर मोहित हो गई और उसने नीचे उतर कर उस भिक्षु को कहा कि आओ! यह पहला मौका है कि मैं किसी को निमंत्रण देती हूं। अब तक लोगों ने मुझे निमंत्रण दिया है और मेरे द्वार पर दस्तक दी है। सभी के लिए द्वार नहीं खुलते हैं।
सम्राज्ञी थी एक अर्थों में वह। सारा नगर उसके लिए दीवाना था, नगरवधू थी, सुंदरतम थी। सभी सम्राट भी उससे मिल पाएं, यह आवश्यक नहीं था।
भिक्षु खड़ा हो गया, उसने कहा कि जब जरूरत होगी तो मैं आऊंगा, जब जरूरत होगी तो मैं जाऊंगा।
पर उस स्त्री ने कहा कि जरूरत? मैं तुम्हें प्रेम का निमंत्रण दे रही हूं!
उस भिक्षु ने कहा- निमंत्रण मैंने सुन लिया और स्वीकार कर लिया।
लेकिन अभी उनको आने दो जो तुम्हारे मित्र हैं, तुम्हारे प्रेमी हैं। कल ऐसा क्षण भी आ जाएगा, न मित्र मिलेगा, न प्रेमी। तब मेरी जरूरत हो तो मैं आ जाऊंगा। मैं तब तक प्रतीक्षा कर सकता हूं।
बात आई—गई हो गई। वेश्या दुखी और पीड़ित है। फिर वर्षो बीत गए। फिर जो होना था, जो होता है, वह हुआ। वह वेश्या कोढ़ग्रस्त हो गई। गांव ने उसे निकाल कर बाहर फेंक दिया। उसके शरीर गल— गल कर अंग उसके गिरने लगे।
कोई उसके पास न आता, दूर तक उसकी बदबू पहुंचती। उस रास्ते से लोग न निकलते कि वह किसी को पुकार न दे दे! क्योंकि ये वे ही लोग थे, जिन्होंने कभी उसके द्वार पर दस्तक भी दी थी। आधी रात, अमावस की रात है, वह तड़प रही है। उसे प्यास लगी है, कोई पानी देने वाला भी नहीं है।
और तभी कोई हाथ उसके माथे पर पहुंच गया। कोई पानी उसके मुंह में डालने लगा। उसने पूछा आंख खोल कर, पानी पीकर, कि तुम कौन हो? तो उसने कहा, मैं वही भिक्षु हूं जो कई वर्ष पहले तुम्हारे द्वार से गुजरा था। एक मैत्री तुमने जानी थी, एक मैत्री मैं भी जानता हूं। पर उस वेश्या ने कहा, अब व्यर्थ ही आए, अब तो मेरे पास देने को कुछ भी नहीं है!
उस भिक्षु ने कहा, जो मैत्री लेने को आती है, वह मैत्री नहीं है। मैं लेने को कुछ नहीं आया। लेकिन हमने कोई ऐसी मैत्री जानी है जो लेने को न आई हो? असल में, हमने दो तरह की शत्रुताएं जानी हैं——अपनों की और परायों की।
अपनों की शत्रुता को हम मैत्री कहते हैं, परायों की शत्रुता को हम शत्रुता कहते हैं। दोनों ही हमसे लेने को आतुर हैं। अपनों के ढंग जरा प्रीतिकर हैं, परायों के ढंग जरा क्रोध से भरे हैं। ये दोनों ही लेने को तत्पर हैं। मैत्री हमने जानी नहीं, प्रेम हमने जाना नहीं, जीवन हमने जाना नहीं, शांति और आनंद की हमें कोई खबर नहीं है।
यद्यपि खोज उसी की है। और वह खोज कभी पूरी न होगी, जब तक जो व्यर्थ है वह व्यर्थ न दिखाई पड़ जाए। तब तक सार्थक की खोज नहीं होती है। जो गलत है, गलत न दिखाई पड़ जाए, तब तक जो ठीक है उसकी खोज शुरू नहीं होती। दफा बिलकुल साफ हो जाना चाहिए कि यह गलत है।