सारे आनंद के फूल स्वतंत्रता के आकाश में खिलते हैं…

संकलन एवम् प्रस्तुति/ मैक्सिम आनन्द

सी. एम. जोड ने कहीं लिखा है, जब मैं पैदा हुआ था, होम्स थे, मेरे देश में। घर थे। अब सिर्फ हाउसेज हैं। अब सिर्फ मकान हैं।स्वभावत: अगर स्‍त्री पुरुष जैसी हो जाती है, तब होम जैसी चीज समाप्त हो जायेगी। घर जैसी चीज समाप्त हो जायेगी। मकान रह जायेंगे। मकान रह जायेंगे, क्योंकि मकान घर बनता था, एक व्यक्तित्व से स्‍त्री के। वह खो गया। अब ठीक वह पुरुष जैसी कलह करती है! पुरुष जैसी झगड़ती है! पुरुष जैसी बात करती है! विवाद करती है! वह सब ठीक पुरुष जैसा कर रही है!लेकिन उसे पता नहीं है कि उसकी आत्मा कभी भी यह करके तृप्त नहीं हो सकती। क्योंकि आत्मा तृप्त होती है वही होकर, जो होने को आदमी पैदा हुआ है।एक गुलाब, गुलाब बन जाता है तो तृप्ति आती है। एक चमेली, चमेली बन जाती है तो तृप्ति आती है। वह तृप्ति फ्लॉवरिंग की है। हमारे भीतर छिपा है—वह खिल जाये, पूरा खिल जाये तो आनंद उपलब्ध होता है।स्‍त्री आज तक कभी आनंदित नहीं रही, न पूरब के मुल्कों में, न पश्‍चिम के मुल्कों में। पूरब के मुल्कों में वप्र गुलाम थी, इसलिए आनंदित नहीं हो सकी; क्योंकि आनंद बिना स्वतंत्रता के कभी उपलब्ध नहीं होता है।सारे आनंद के फूल स्वतंत्रता के आकाश में खिलते हैं।

ध्यान रहे, अगर स्‍त्री आनंदित नहीं है तो पुरुष कभी आनंदित नहीं हो सकता है। वह लाख सिर पटके। क्योंकि समाज का आधा हिस्सा दुखी है। घर का केंद्र दुखी है। वह दुखी केंद्र अपने चारों तरफ दुख की किरणें फेंकता रहता है। और दुख के केंद्र की किरणों में सारा व्यक्तित्व समाज का, दुखी हो जाता है।और मैं आपसे कहना चाहता हूं जितना दुख होता है, उतनी चिंता शुरू हो जाती है। क्यों? क्योंकि दुखी आदमी दूसरे को दुखी करने में आतुर होता है। क्योंकि दुखी आदमी फिर किसी को सुखी देखना नहीं चाहता।दुखी आदमी चाहता है, दूसरे को दुख हो दुखी आदमी का एक ही सुख होता है, दूसरे को दुख दे देने का सुख।

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