(समीक्षा _ दरवेश आनंद/ संपादक _लोक असर )
कवि “बस्तर की सुबह” नामक काव्य संग्रह में जल,जंगल,ज़मीन की बात” को प्रमुखता से उठाया है। आज़ 09 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस मनाया जा रहा है ऐसे में बरबस ही उनकी प्रगतिशील चार कविताएं … मुझे प्रभावित कर गया, जिसे अपने लोक असर के सुधी पाठकों तक रखने का प्रयास किया है एक समीक्षा सहित…
यह कि “स्वैच्छिक अलगाव और प्रारंभिक संपर्क में स्वदेशी लोगों के अधिकारों की रक्षा करना” है।इस कड़ी में प्रासंगिक बस्तर के यशस्वी रचनाकार ,मानावशास्त्री, कवि , साहित्यकार, लेखक डॉ रूपेन्द्र कवि ने अपने कलम से रंगभरा है।
“बस्तर की सुबह”(डॉ रूपेन्द्र कवि की कविताएँ) ज्ञानमुद्रा प्रकाशन भोपाल से प्रकाशित हिन्दी-हल्बी द्विभाषीय कविता संग्रह में बस्तर के आदिवासी ,जनजीवन, संस्कृति, प्रकृति व अन्य सभी बातों को कविताओं के माध्यम से कही गई है। पृष्ठ क्रमांक 70-71 में “जल, जंगल, ज़मीन” (पृष्ठ क्रमांक72-73में हल्बी में “पानी, रान आउर भुय”) प्रकाशित है।
कवि ने सरल शब्दरचना के माध्यम से कविता के माध्यम से बस्तर के आदिवासियों के हक़ की अवाज बुलंद की है। कभी नक्सल से और कभी सेना से बार बार बेदख़ली और बदनामी से दो चार होने और डर की ज़िंदगी जीने को मजबूर ज़िंदगी को कलमबद्ध किया है। कवि ने अपने भावुक शैली में “बस्तर की सुबह “ के माध्यम से जहां “जल,जंगल,ज़मीन “ की बात कही है उसी क्रम में बस्तर व आदिवासी जनजीवन पर यह किताब एक फुटप्रिंट है।
जल, जंगल, जमीन
एक
मैं खेत खलिहान में काम कर भी खुश था, क्योंकि मैं और मेरा घर महफूज था।
न लूट-खसोट का डर
और न खून-खराबा,
हमारी कानी कुतिया भी आराम से सोती थी।
दो
कभी अंदर से आकर कहते हो,
बाहर मत जाना,
कभी कहते हो अंदर मत आना।
क्या मेरा आना-जाना भी तुम तय करोगे,
मैं गरीब जरूर हूँ पर,
मेरी भी इच्छाएँ हैं।
मैं आजाद-स्वच्छंद जीवन का प्रेमी हूँ ,
मुझे मेरी
वही प्राकृतिक-स्वच्छंदता लौटा दो।
तीन
यदि तुम्हे मुझसे कुछ जानना सीखना हो,
तो बेशक मुझ तक आ जाओ।
सड़क बनालो, फोन लगा लो, कम्प्यूटर लगा लो, मैं भी तुम लोगों से जुड़ना चाहता हूँ।
बस शर्त यह है कि हर काम के साथ,
मुझे नाश करने का बम छुपा कर मत रखना और बिचौलिये का काम भी मत करना।
चार
मैं और मेरा जमीर जिन्दा है,
मुझे मेरा जल, जंगल और जमीन लौटा दो।
कम से कम अब जो मेरे पास बचा है,
उस पर नजर मत रखना।
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