(संकलन एवं प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द)
बड़ी मीठी कथा है झेन में, एक छोटा बच्चा एक सदगुरु की सेवा में आया करता था। और भी बड़े साधक आते थे। वह बैठ कर चुपचाप सुनता था। जैसा वह साधक छोटा-सा बच्चा गुरु के पास आता था, वह बैठता था अपनी चटाई बिछा कर, सुनता था गुरु की बातें-दूसरों से जो गुरु कहता था।
एक दिन वह आया, उसने चटाई बिछाई, गुरु के चरणों से सिर झुका कर कहा कि मुझे भी ध्यान की विधि दें। गुरु थोड़ा हंसा होगा। उस जगत में बड़े-बड़े छोटे बच्चों जैसे हैं। छोटा बच्चा ! लेकिन जब इतनी सरलता से पूछा गया है तो इनकार नहीं किया जा सकता। गुरु ने कहा कि तू ऐसा कर, एक हाथ की ताली को सुनने की कोशिश कर।
उसने झुक कर नमस्कार किया विधिवत । वह गया, बड़ी चिंता में पड़ गया। वह बैठा। उसने सब तरफ से सुनने की कोशिश की। सांझ का सन्नाटा था, कौए वापस लौटे थे दिन भर की यात्रा और थकान से और कांव-कांव कर रहे थे। उसने कहा कि हो न हो, यही एक हाथ की आवाज है।
वह भागा, दूसरे दिन सुबह गुरु के पास आया। उसने कहा पाली ! कौओं की आवाज ?
गुरु ने कहा कि नहीं, यह भी नहीं है। और खोजो । वह गया रात के सन्नाटे में मौन बैठा रहा झींगुर बोलते थे, उसने कहा, हो न हो सन्नाटे की आवाज-यही वह आवाज। दूसरे दिन सुबह वह मौजूद हुआ। उसने कहाः झींगुर की आवाज ? गुरु ने कहा कि नहीं, और खोज़ो। तुम करीब आ रहे हो। मगर थोड़ा और खोजो।
कुछ दिन तक वह नहीं लौटा। बड़ी खोज की, तब एक दिन उसे पता चला, प्राचीन आश्रम के वृक्षों के निकलती – हुई हवा, एक जरा सी सरसराहट कि पकड़ में न आए, पहचान में न आए। उसने कहा, हो न हो यही है। वह आया। उसने कहा। वृक्षों से निकलती हुई हवा की आवाज, सरसराहट ? गुरु ने कहा कि नहीं। करीब तुम आ रहे हो, लेकिन अभी भी बहुत दूर हो। खोजो।
फिर कुछ महीने तक बच्चा न आया। गुरु चिंतित हुआ, क्या हुआ ? गुरु उसकी तलाश में गया। वह एक वटवृक्ष के नीचे ध्यानमग्न बैठा था। उसके चेहरे पर ही साफ़ था कि उसने आवाज सुन ली है। सारा तनाव जा चुका था। वह बुद्धत्व था। जैसे हो ही न।
तो गुरु ने उसे उठाया और कहाः क्या हुआ ? उस आवाज का?
उस छोटे से बच्चे ने कहा: जब सुन ही ली तो कहना मुश्किल हो गया, बताना मुश्किल । अब मैं यह सोच रहा हूं, बहुत दिन से कि कैसे बताऊं, कैसे कहूं !
गुरु ने कहा: अब कोई जरूरत नहीं ! वह छोटा बच्चा भी बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया।