(संकलन एवं प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द)
एक अंधा आदमी रात विदा हो रहा है एक मित्र के घर से। मित्र ने दया करके कहा कि रात अंधेरी है, अमावस की रात है, तुम हाथ में लालटेन लेते जाओ। वह अंधा आदमी हंसने लगा। उसने कहा, मैं लालटेन का क्या करूंगा ? मैं तो अंधा हूं, मुझे तो दिन में भी रात ही है। पूर्णिमा हो तो भी अमावस है। मुझे तो पूर्णिमा और अमावस में कोई भेद दिखाई पड़ता नहीं। मुझे तो दिन और रात में भी भेद दिखाई नहीं पड़ता। लालटेन का मैं क्या करूंगा ? लालटेन क्या मेरे काम आएगी ?
लेकिन मित्र भी तार्किक था, उसने कहा कि यह तो मैं भी समझता हूं कि तुम अंधे हो, तुम्हारे हाथ में लालटेन तुम्हारे किसी काम की नहीं। लेकिन दूसरे तो तुम्हें देख लेंगे. अंधेरे में कि तुम आ रहे हो, तो कोई दूसरा तुमसे अंधेरे में न टकरा जाए। इतना ही बचाव हो जाए तो क्या कम है!
यह तर्क सही मालूम पड़ा, उचित मालूम पड़ा। अंधा राजी हो गया। लेकर लालटेन चला था। सौ ही कदम गया होगा कि एक आदमी आकर टकरा गया। अंधा तो बड़ा हैरान हुआ। उसकी लालटेन भी गिर गई और फूट गई, वह खुद भी गिर पड़ा और उसने कहा कि भई क्या, क्या तुम भी अंधे हो ? इस गांव में तो मैं अकेला ही अंधा हूं, तुम क्या परदेश से आ गए कोई और ?
वह आदमी हंसने लगा, उसने कहा कि मैं अंधा नहीं हूं, लेकिन तुम्हारी लालटेन बुझ गई। तुम बुझी लालटेन लिए चल रहे हो।
अंधे आदमी को पता भी कैसे चले कि लालटेन जली है कि बुझी ! उसको लालटेन पकड़ा दी तो वह चल पड़ा। ऐसे ही तुम सिद्धांतों को पकड़े हुए हो; वे बुझी हुई लालटेनें हैं। कृष्ण के हाथ में जिस गीता में ज्योति थी; तुम्हारे हाथ में उसी गीता में कोई ज्योति नहीं है। तुम्हारे हाथ उसकी ज्योति को बुझा देने के लिए पर्याप्त हैं। तुम काफी हो। तुम्हारे हाथ में और गीता में ज्योति रह जाए, यह असंभव है। तुम्हारे हाथ में तो जो पड़ेगा, तुम्हारा रंग ले लेगा। कुरान पड़ेगी तो लड़खड़ा जाएगी। बाइबिल तुम्हारे हाथ में पड़ेगी, अंधी हो जाएगी। वेद तुम्हारे हाथ में पड़ेंगे, मूच्छित हो जाएंगे। तुम गजब के हो ! तुम्हें सिद्धांत और शास्त्र नहीं बदल पाएंगे; तुम सिद्धांत और शास्त्रों को बदल दोगे।
तुम्हारे साथ तुम्हारे शास्त्र भी लड़खड़ा रहे हैं, जगह- जगह नालियों में पड़ें हैं- तुम्हारे साथ । तुम जहां हो वहीं तुम्हारे शास्त्र भी होंगे।