(संकलन एवं प्रस्तुति मैक्सिम आनंद)
परमात्मा को जानने के पहले स्वयं को जानना जरूरी है। और सत्य को जानने के पहले स्वयं को पहचानना जरूरी है। क्योंकि जो मेरे निकटतम है, अगर वही अपरिचित है तो जो दूरतम हैं, वह कैसे परिचित हो सकेंगे! तो इसके पहले कि किसी मंदिर में परमात्मा को खोजने जाए, इसके पहले कि किसी सत्य की तलाश में शास्त्रों में भटकें उस व्यक्ति को मत भूल जाना जो कि आप हैं। सबसे पहले और सबसे प्रथम उससे परिचित होना होगा जो कि आप हैं। लेकिन कोई स्वयं से परिचित होने को उत्सुक नहीं है। सभी लोग दूसरे से परिचित होना चाहते हैं। दूसरे से जो परिचय है, वही विज्ञान है, और स्वयं से जो परिचय है, वही धर्म है। जो स्वयं को जान लेता है, बड़े आश्चर्य की बात है, वह दूसरे को भी जान लेता है। लेकिन जो दूसरे को जानने में समय व्यतीत करता है, यह बड़े आश्चर्य की बात है, दूसरे को तो जान ही नहीं पाता, धीरे-धीरे उसके स्वयं को जानने के द्वार भी बंद हो जाते हैं। ज्ञान की पहली किरण स्वयं से प्रकट होती है और धीरे-धीरे सब पर फैल जाती है। ज्ञान की पहली ज्योति स्वयं में जलती है और फिर समस्त जीवन में उसका प्रकाश, उसका आलोक दिखाई पड़ने लगता है।
जो स्वयं को नहीं जानता है, उसके लिए ईश्वर मृत है चाहे वह कितनी ही पूजा करे और कितनी ही अर्चनाएं, चाहे वह मंदिर बनाए, मूर्तियां बनाए और कुछ भी करे। एक काम अगर उसने छोड़ रखा है स्वयं को जानने का, तो जान लें कि परमात्मा से उसका कोई संबंध कभी नहीं हो सकेगा। परमात्मा से संबंध की पहली बुनियादी, आधारभूत शर्त है..स्वयं से संबंधित हो जाना। क्योंकि वही सूत्र है, वही सेतु है, वही मार्ग है, वही द्वार है, परमात्मा से संबंधित होने का।